शनिवार, 29 जुलाई 2023

टुकड़े-टुकड़े भगत सिंह 
कल गाँधी नामक एक महात्मा मौन था 
आज सब गाँधी है, सब महात्मा है, सब मौन है 
खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते है 
तुम्हारा भाई भगत सिंह

फांसी के बाद अंग्रेजों ने भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के टुकड़े किए
अधजली लाश को फेक कर भागे …?


भगत सिंह के जन्म के समय उनके पिता किशन सिंह, चाचा अजित और स्वरण सिंह जेल में थे। उन्हें 1906 में लागू किये हुए औपनिवेशीकरण विधेयक के खिलाफ प्रदर्शन करने के जुल्म में जेल में डाल दिया गया था। उनकी माता का नाम विद्यावती था। भगत सिंह के भाई – रणवीर, कुलतार, राजिंदर, कुलबीर, जगत, बहन - प्रकाश कौर, अमर कौर, शकुंतला कौर अर्थात् सरदार भगत सिंह का  सुंदर, सम्पन्न, भरपूरा, देशभक्त परिवार था। कमी थी तो सिर्फ भगत सिंह के पत्नी की जो फाँसी के फन्दे के रूप में उन्हें मिली, भगत सिंह का मौत से आलिंगन भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को शक्ति के रूप में प्राप्त हुआ, नमन है ऐसे सपूत को ।
भगत सिंह का जन्म कुछ इतिहासकार भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 (अश्विन कृष्णपक्ष सप्तमी) को मानते है तो कुछ तत्कालीन अनेक साक्ष्यों के अनुसार उनका जन्म 27 सितंबर 1907 ई० को मानते है भगत सिंह का जन्म पंजाब के गाँव बंगा, तहसील जड़ाँवाला, जिला लायलपुर में संवत् 1964 के आश्विन शुक्ल त्रयोदशी तिथि को शनिवार के दिन (तदनुसार 19 अक्टूबर 1907 ई०को) प्रातः काल 9:00 बजे हुआ था। इसी दिन बंगा में यह खबर पहुँची थी कि सरदार अजीत सिंह रिहा कर दिये गये हैं और भारत आ रहे हैं। यह समाचार भी घर पहुँचा था कि सरदार किशन सिंह जी नेपाल से लाहौर पहुँच गये हैं और सरदार सुवर्ण सिंह जी इसी दिन जेल से छूटकर घर पहुँच गये थे। भगत सिंह की दादी ने जहाँ पौत्र का मुख देखा वहीं उन्हें अपने बिछड़े हुए तीनों पुत्रों का भी मंगलजनक समाचार मिला। अतः उन्होंने कहा बच्चा 'भागोंवाला' (भाग्यवान) उत्पन्न हुआ है, इसी कारण बालक का नाम पीछे भगतसिंह रख दिया गया। भगत सिंह के 23 मार्च 1931 को शहीद होने के तुरंत बाद उन पर केंद्रित 'अभ्युदय' पत्रिका के लिए विशेष रूप से लिखे गये 'फरिश्ता भगत सिंह' नामक परिचय में यही जन्मतिथि स्वीकार की गयी है। इतना ही नहीं 16 अप्रैल 1931 को प्रकाशित 'भविष्य' पत्रिका के अंक में भी भगत सिंह के परिचय में यही जन्मतिथि दी गयी है। पुनः 4 जून 1931 को प्रकाशित 'भविष्य' के अंक में भगत सिंह के करीबी मित्र श्री जितेंद्र नाथ सान्याल द्वारा लिखित जीवनी के अंश में भी 1907 के अक्तूबर में शनिवार के प्रातः काल भगत सिंह का जन्म माना गया है। स्वयं क्रांतिकारी दल में सम्मिलित रहे सुप्रसिद्ध लेखक श्री मन्मथनाथ गुप्त ने भी उक्त तिथि को ही स्वीकार किया है। इस प्रकार भगत सिंह के समसामयिक व्यक्तियों द्वारा उल्लिखित तथ्यों के अनुसार उनकी जन्मतिथि 19 अक्टूबर 1907 ई० ही सिद्ध होती है। बावजूद इसके उनकी जन्मतिथि 27- 28 सितंबर के रूप में प्रचलित हो गयी है और उन पर काम करने वाले विद्वान भी बिना विशेष विचार किए 27- 28 सितंबर को ही उनके जन्म-दिनांक के रूप में मानते चले जा रहे हैं।

सरदार किशन सिंह और माता विद्यावती कौर के प्रिय वेटे ने जो किया, यह भारत उसका ऋणी है ।अमृतसर में १३ अप्रैल १९१९ को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिए ,
अखिल भारत हिन्दू महासभा की युवा साखा अर्थात् नौजवान भारत सभा
के संगठनात्मक मजबूती की कमान सभाली थी।

भगत सिंह अखिल भारत हिन्दू महासभा के कर्मठ सिपाही होते हुए भी मोहनदास करमचंद गांधी से प्रभावित थे उन्हें लगता था की भारत की स्वतंत्रत के लिये अहिंसा भी एक मजबूत रास्ता हो सकता है परन्तु वर्ष 1922 में चौरी-चौरा हत्‍याकांड के बाद गाँधी जी ने जब किसानों का साथ नहीं दिया तब भगत सिंह बहुत निराश हुए। उसके बाद उनका अहिंसा से विश्वास कमजोर हो गया और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सशस्त्र क्रांति ही स्वतंत्रता दिलाने का एक मात्र रास्ता है। उसके बाद वह चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्‍व में गठित हुई गदर दल के हिस्‍सा बन गए। 

 (उस समय नरम दल जिसके नेता गांधी थे जो कॉंग्रेस की नीतियों के आधार पर देश की राजनीति और आंदोलन की रचना करते थे, दूसरी तरफ गरम दल अर्थात् लाला लाजपत राय, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक और विपिनचंद पाल “लाल,बाल,पाल ” अर्थात् प्रखर राष्ट्रवादी अखिल भारत हिन्दू महासभा थी जो अखण्ड भारत की स्वतंत्रत और राष्ट्र गौरव की पुनः स्थापना के लिए प्राण प्रण से समर्पित-संकल्पित थी, अनेको क्रांतिकारी दल अखिल भारत हिन्दू महासभा के नेतत्व में काम करते थे, हिन्दू महासभा ने सैकडो ऐसे नाम पर क्रांतिकारियों के दल बना रखे थे, जो गाँधी जी के नरम दल में नही था वह अखिल भारत हिन्दू महासभा के गरम दल की किसी ना किसी साखा से जुड़ा था ) 

काकोरी काण्ड में राम प्रसाद 'बिस्मिल' सहित ०४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन से जुड़ गए और उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था।
(भाई परमानंद जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और चंद्रशेखर आजाद के क्रांतिकारी संगठन का संचालन करते थे,कोई भी क्रांति कारी संगठन चाहे वह किसी भी नाम पर संचालित रहा हो उसका आधार-उदगम अखिल भारत हिन्दू महासभा ही रही है )
भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर १७ दिसम्बर १९२८ को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में ८ अप्रैल १९२९ को अंग्रेज़ सरकार को जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी। यू ही कोई क्रांतिकारी भगत सिंह नही होता, ज्ञात हो कि उस समय भगत सिंह करीब बारह वर्ष के थे जब जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से १२ मील पैदल चलकर जलियाँवाला बाग पहुँच गए। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ? 
गांधी जी का असहयोग आन्दोलन छिड़ने के बाद वे गान्धी जी के अहिंसात्मक तरीकों और क्रान्तिकारियों के हिंसक आन्दोलन में से अपने लिए रास्ता चुनने लगे। गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन को रद्द कर देने के कारण उनमें थोड़ा रोष उत्पन्न हुआ, पर पूरे राष्ट्र की तरह वो भी महात्मा गाँधी का सम्मान करते थे। पर उन्होंने गाँधी जी के अहिंसात्मक आन्दोलन की जगह देश की स्वतन्त्रता के लिए हिंसात्मक क्रांति का मार्ग अपनाना अनुचित नहीं समझा। उन्होंने जुलूसों में भाग लेना प्रारम्भ किया तथा कई क्रान्तिकारी दलों के सदस्य बने। उनके दल के प्रमुख क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजादसुखदेव, राजगुरु इत्यादि थे। काकोरी काण्ड में ४ क्रान्तिकारियों को फाँसी व १६ अन्य को कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्विग्न हुए कि उन्होंने १९२८ में अपनी पार्टी अखिल भारत हिन्दू महासभा की युवा साखा अर्थात् नौजवान भारत सभा की संगठनात्मक मजबूती की कमान सभाली १९२८ में साइमन कमीशन के बहिष्कार के लिए भयानक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों में भाग लेने वालों पर अंग्रेजी शासन ने लाठी चार्ज भी किया। इसी लाठी चार्ज से आहत होकर लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई। 
( लाला लाजपत राय जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे, साइमन कमीशन के विरोध में उनके सुरक्षा की जुम्मेदारी युवा हिन्दू महासभा के युवा अध्यक्ष सरदार भगत सिंह जी के ऊपर थी,भगत सिंह ने लाला जी के चरो और युवाओं की टोली बना रखी थी जिसने घेरे में लाजपत राय को ले रखा था, जब अंग्रेजों ने लाठी चार्ज किया तो इसी युवा टोली ने लाला जी को सँभला था ) 
लाला लाजपत राय की मृत्यु से आहत भगत सिंह ने एक गुप्त योजना के तहत इन्होंने पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट स्काट को मारने की योजना सोची। सोची गई योजना के अनुसार भगत सिंह और राजगुरु लाहौर कोतवाली के सामने व्यस्त मुद्रा में टहलने लगे। उधर जयगोपाल अपनी साइकिल को लेकर ऐसे बैठ गए जैसे कि वो ख़राब हो गई हो। गोपाल के इशारे पर दोनों सचेत हो गए। उधर चन्द्रशेखर आज़ाद पास के डी० ए० lवी० स्कूल की चहारदीवारी के पास छिपकर घटना को अंजाम देने में रक्षक का काम कर रहे थे। १७ दिसंबर १९२८ को करीब सवा चार बजे, ए० एस० पी० सॉण्डर्स के आते ही राजगुरु ने एक गोली सीधी उसके सर में मारी जिससे वह पहले ही मर जाता। लेकिन तुरन्त बाद भगत सिंह ने भी ३-४ गोली दाग कर उसके मरने का पूरा इन्तज़ाम कर दिया। ये दोनों जैसे ही भाग रहे थे कि एक सिपाही चनन सिंह ने इनका पीछा करना शुरू कर दिया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने उसे सावधान किया - "आगे बढ़े तो गोली मार दूँगा।" नहीं मानने पर आज़ाद ने उसे गोली मार दी और वो वहीं पर मर गया। इस तरह इन लोगों ने अखिल भारत हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लाला लाजपत राय की मौत का बदला ले लिया। भगत सिंह समाजवाद के पक्के पोषक भी थे। कलान्तर में उनके विरोधी द्वारा उनको अपने विचारधारा बता कर युवाओ को भगत सिंह के नाम पर बरगलाने के आरोप लगते रहे है। कॉंग्रेस के सत्ता में रहने के बावजूद भगत सिंह को काँग्रेस शहीद का दर्जा नही दिलवा पाए, क्योंकि वे केवल भगत सिंह के नाम का इस्तेमाल युवाओं को अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए करते थे। भगत सिंह को पूँजीपतियों की मजदूरों के प्रति शोषण की नीति पसन्द नहीं आती थी। उस समय चूँकि अँग्रेज ही सर्वेसर्वा थे तथा बहुत कम भारतीय उद्योगपति उन्नति कर पाये थे, अतः अँग्रेजों के मजदूरों के प्रति अत्याचार से उनका विरोध स्वाभाविक था। मजदूर विरोधी ऐसी नीतियों को ब्रिटिश संसद में पारित न होने देना उनके दल का निर्णय था। सभी चाहते थे कि अँग्रेजों को पता चलना चाहिए कि हिन्दुस्तानी जाग चुके हैं और उनके हृदय में ऐसी नीतियों के प्रति आक्रोश है। ऐसा करने के लिये ही उन्होंने दिल्ली की केन्द्रीय एसेम्बली में बम फेंकने की योजना बनाई थी। भगत सिंह चाहते थे कि इसमें कोई खून खराबा न हो और अँग्रेजों तक उनकी 'आवाज़' भी पहुँचे। हालाँकि प्रारम्भ में उनके दल के सब लोग ऐसा नहीं सोचते थे पर अन्त में सर्वसम्मति से भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त का नाम चुना गया। निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ८ अप्रैल १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में इन दोनों ने एक ऐसे स्थान पर बम फेंका जहाँ कोई मौजूद न था, अन्यथा उसे चोट लग सकती थी। पूरा हाल धुएँ से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहें वह फाँसी ही क्यों न हो; अतः उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे दोनों खाकी कमीज़ तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद उन्होंने "इंकलाब-जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद-मुर्दाबाद!" का नारा लगाया और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल दिए। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गई और दोनों को ग़िरफ़्तार कर लिया गया। जेल में भगत सिंह करीब २ साल रहे। इस दौरान वे लेख लिखकर अपने क्रान्तिकारी विचार व्यक्त करते रहते थे। जेल में रहते हुए भी उनका अध्ययन लगातार जारी रहा। उनके उस दौरान लिखे गये लेख व सगे सम्बन्धियों को लिखे गये पत्र आज भी उनके विचारों के दर्पण हैं। अपने लेखों में उन्होंने कई तरह से पूँजीपतियों को अपना शत्रु बताया है। उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला चाहें एक भारतीय ही क्यों न हो, वह उनका शत्रु है। उन्होंने जेल में अंग्रेज़ी में एक लेख भी लिखा जिसका शीर्षक था मैं नास्तिक क्यों हूँ?
जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने ६४ दिनों तक भूख हडताल की। उनके एक साथी यतीन्द्रनाथ दास ने तो भूख हड़ताल में अपने प्राण ही त्याग दिये थे। 26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी की सजा सुनाई गई। फाँसी की सजा सुनाए जाने के साथ ही लाहौर में धारा 144 लगा दी गई। इसके बाद भगत सिंह की फाँसी की माफी के लिए प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। इसके बाद पं. मदन मोहन मालवीय जो की अखिल भारत हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे ने वायसराय के सामने सजा माफी के लिए 14 फरवरी, 1931 को अपील दायर की कि वह अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए मानवता के आधार पर फांसी की सजा माफ कर दें। भगत सिंह की फाँसी की सज़ा माफ़ हो अथवा ना हो इस मुद्दे पर महात्मा गाँधी ने 17 फरवरी 1931 को वायसराय से बात की फिर 18 फरवरी, 1931 को आम जनता की ओर से भी वायसराय के सामने विभिन्न तर्को के साथ सजा माफी के लिए अपील दायर की। यह सब कुछ भगत सिंह की इच्छा के खिलाफ हो रहा था क्यों कि भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी सजा माफ की जाए। 23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को लाहौर की सेंट्रल जेल में फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिए! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो।"
लाहौर जेल की दिवारे, जेल के सीक्चे, और रात के सन्नाटे को चीरती हुई देशभक्तों की आवाज़ ब्रिटिश सरकार को झकझोर देने के लिए आँधी बन चुकी थी । युवाओं को भारत की स्वतंत्रता का नायक मिल गया और कायरता भरे आंदोलन से बाहर निकल कर युवा हर कीमत पर स्वतंत्रत के लिए वेचैन हो उठा । फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे - 

मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे। मेरा रँग दे बसन्ती चोला।माय रँग दे बसन्ती चोला॥

भगत सिंह को फांसी तय तारीख 24 मार्च से एक दिन पहले ही 23 मार्च की शाम को दे दी गई। जबकि ऐसा इतिहास में कभी नहीं हुआ था।  23 मार्च की रात में जब सम्पूर्ण भारत सोने की तैयारी कर रहा था एक तरफ देशभक्तों की आँखें कल भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव को होने बाली फाँसी से नम हो रही थी, लाहौर की गलियों में सन्नाटा था उस समय अचानक भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की तेज आवाज़ जिसने जेल के आस पास की बस्तियों में रहने बालों को वास्तविक और भ्रामक नीद से झकझोर कर जगादिया “इंक़लाब ज़िन्दाबाद ”  मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे। मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला॥ जिसने भी इस क्रांतिकारियों की आवाज़ को सुना उसे किसी अनहोनी की आशंका ने जेल की तरफ भागने मजबूर कर दिया देखते ही देखते जेल के भीतर से आने बाली आवाज़   “इंक़लाब ज़िन्दाबाद ”  मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे। मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला॥  के ध्वनि की प्रतिध्वनि  “इंक़लाब ज़िन्दाबाद ”  मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे। मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला॥ जेल के बाहर भी गूंजने लगी थी । भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च की शाम 7:33 पर फांसी दे दी गई। वह सोमवार का दिन था। ऐसा कहा जाता है कि उस शाम जेल में पंद्रह मिनट तक इंकलाब जिंदाबाद के नारे गूंज रहे थे।
फांसी का लीवर खींचने के लिए ब्रिटिश शासन के मसीह जल्लाद को लाहौर के पास शाहदरा से बुलाया गया था।फांसी के समय जो कुछ आधिकारिक लोग शामिल थे उनमें यूरोप के डिप्टी कमिश्नर भी शामिल थे। जितेंदर सान्याल की लिखी किताब भगत सिंह के अनुसार ठीक फांसी पर चढऩे के पहले के वक्त भगत सिंह ने उनसे कहा, मिस्टर मजिस्ट्रेट आप बेहद भाग्यशाली हैं कि आपको यह देखने को मिल रहा है कि भारत के कांतिकारी किस तरह अपने आदर्शों के लिए फांसी पर भी झूल जाते हैं। जेलर चरत सिंह ने फांसी के तख्ते पर खड़े भगत के कान में फुसफुसा कर कहा कि वाहे गुरु को याद कर लो। भगत ने जवाब दिया- पूरी जिंदगी मैंने ईश्वर को याद नहीं किया। असल में मैंने कई बार गरीबों के क्लेश के लिए ईश्वर को कोसा है। अगर मैं अब उनसे माफी मांगू तो वो कहेंगे कि इससे बड़ा डरपोक कोई नहीं है। इसका अंत नजदीक आ रहा है, इसलिए ये माफी मांगने आया है। जैसे ही तीनों फांसी के तख्ते पर पहुंचे तो जेल "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है..., 'इंक़लाब जिंदाबाद' और 'हिंदुस्तान आजाद हो' के नारों से गूंजने लगा और अन्य कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे। सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर लटकने की हामी भरी थी। वहां मौजूद डॉक्टरों लेफ्टिनेंट कर्नल जेजे नेल्सन और लेफ्टिनेंट कर्नल एनएस सोधी ने तीनों के मृत होने की पुष्टि की। चमन लाल के मुताबिक जेल के बाहर भीड़ इकठ्ठा हो रही थी। इससे अंग्रेज डर गए और जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई। उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और उस पर बहुत अपमानजनक तरीके से उन शवों को एक सामान की तरह डाल दिया गया।(सब कुछ मैं स्वीकार कर सकता हूँ परंतु मुझे यह बात कतई स्वीकार्य नही हो रही, मुझे लगता है की भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी नही दी गई उनकी हत्या की गई, उनके शरीर के छोटे छोटे टुकड़े काटे गए थे) अतिम संस्कार रावी के तट पर किया जाना था, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फैसला लिया गया। तीनों क्रांतिकारियों की लाशों पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगादी गई, हालांकि लोगों को भनक लग गई और वे वहां भी पहुंच गए। ये देखकर अंग्रेज अधजली लाशें छोड़कर भाग गए। तीनों के सम्मान में तीन मील लंबा शोक जुलूस नीला गुंबद से शुरू हुआ। पुरुषों ने विरोध में अपनी बाहों पर काली पट्टियां बांध रखी थीं और महिलाओं ने काली साड़ियां पहन रखी थीं। भारत के सपूतों की विदाई होगई, सारी दुनिया ऐसी क़ुर्बानी पर रोई सब की आँखे नम हुई परंतु इस अपमानित क्रूरता भरी मौत पर गाँधी नामक महात्मा आज भी मौन था 

आज मोहनदास करमचंद गाँधी अर्थात् राजनैतिक राष्ट्र पिता के पक्ष में ये घटना क्रम प्रचारित किया गया की गाँधी ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को बचाने के लिए जीतोड़ कोशिश की परंतु शर्व शक्तिमान गाँधी इन क्रांतिकारियों को बचाने में सफल नही हुए ।
कोर्ट ट्रायल और भूख हड़ताल की वजह से भगत सिंह और उनके साथी युवाओं के बीच में काफी लोकप्रिय हो गए थे. गांधी उस समय भारत के सबसे बड़े नेता बन चुके थे. ऐसे में सबको गांधी से उम्मीद थी कि वो इस मामले में तुरंत ही कुछ करेंगे. 17 फरवरी 1931 को गांधी और इरविन के बीच समझौता हुआ. भगत सिंह के समर्थक चाहते थे कि गांधी इस समझौते की शर्तों में भगत सिंह की फांसी रोकना शामिल करें.गांधी ने भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए कानूनी रास्ते भी तलाशने शुरू किए. 29 अप्रैल, 1931 को सी विजयराघवाचारी को भेजी चिट्ठी में गांधी ने लिखा, "इस सजा की कानूनी वैधता को लेकर ज्यूरिस्ट सर तेज बहादुर ने वायसराय से बात की. लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं निकला." गांधी के सामने बड़ी परेशानी ये थी कि ये क्रांतिकारी खुद ही अपनी फांसी का विरोध नहीं कर रहे थे. गांधी एक कोशिश में थे कि भगत सिंह और उनके साथी एक वादा कर दें कि वो आगे हिंसक कदम नहीं उठाएंगे. इसका हवाला देकर वो अंग्रेजों से फांसी की सजा रुकवा लेंगे.(अर्थात् भारत की स्वतंत्रत का यत्न त्याग कर अपनी गुलामी को स्वीकार करते हुए ब्रिटिस सरकार से स्वतंत्रता आंदोलन ना चलाने का वादा और किए गए आज तक से सभी प्रयासों की लिए क्षम/याचना) लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 19 मार्च 1931 को गांधी ने इरविन से फिर भगत सिंह और उनके साथियों को लेकर बात की. इरविन ने गांधी को जवाब देते हुए कहा, "फांसी की तारीख आगे बढ़ाना, वो भी बस राजनैतिक वजहों से, वो भी तब जबकि तारीख का ऐलान हो चुका है, सही नहीं होगा.सजा की तारीख आगे बढ़ाना अमानवीय होगा.(जिन्होंने इन क्रांतिकारी सपूतों को समय से पहले फाँसी दी-मारडाला, उनकी लाशों के टुकड़े किए, मिट्टी का तेल डाल कर उन्हें जलाने का यत्न किया, अध जाली लाशों को नदी में फेक कर भाग गये वह अंग्रेज महात्मा गाँधी से मानवीय और अमानवीयता की बात करते थे जिसे गाँधी जी सहर्ष स्वीकार कर लेते थे…? ) महात्मा गाँधी के ऐसे प्रयाशों का अर्थ साफ था की इससे भगत, राजगुरु और सुखदेव के दोस्तों और रिश्तेदारों को लगेगा कि ब्रिटिश सरकार इन तीनों की सजा कम करने पर विचार कर रही है." गांधी ने इसके बाद भी कोशिश जारी रखी. उन्होंने आसिफ अली को लाहौर में भगत सिंह और उनके साथियों से मिलने भेजा. वो बस एक वादा चाहते थे कि भगत सिंह और उनके साथी हिंसा का रास्ता छोड़ देंगे. इससे वो अंग्रेजों के साथ बात कर सकेंगे. लेकिन आसिफ अली और भगत सिंह की मुलाकात ना हो सकी. आसिफ अली ने लाहौर में प्रेस को बताया, "मैं दिल्ली से लाहौर आया, ताकि भगत सिंह से मिल सकूं. मैं भगत से एक चिट्ठी लेना चाहता था,(अपना अपराध स्वीकार करते हुए दया/छमा का जीवन दान हेतु याचना पत्र ) जो रिवॉल्यूशनरी पार्टी के उनके साथियों के नाम होती. जिसमें भगत अपने क्रांतिकारी साथियों से कहते कि वो हिंसा का रास्ता छोड़ दें. मैंने भगत से मिलने की हर मुमकिन कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो पाया."एक और झटका लगने के बाद भी गांधी कोशिशों में लगे रहे. 26 मार्च से कराची में कांग्रेस का अधिवेशन शुरू होना था. गांधी को इस अधिवेशन में जाने के लिए निकलना था. लेकिन 21 मार्च 1931 के न्यूज क्रॉनिकल में रॉबर्ट बर्नेज ने लिखा, "गांधी कराची अधिवेशन के लिए रवाना होने में देर कर रहे हैं, ताकि वो भगत सिंह की सजा पर वायसराय से बात कर सकें." 21 मार्च को गांधी और इरविन की मुलाकात हुई. गांधी ने इरविन से फिर भगत सिंह की सजा रोकने की मांग की. 22 मार्च को फिर से गांधी और इरविन की मुलाकात हुई. इरविन ने वादा किया कि वो इस पर विचार करेंगे. 23 मार्च को यानी फांसी की तारीख से एक दिन पहले गांधी ने इरविन को एक चिट्ठी लिखकर कई कारण गिनाए और इस सजा को रोकने की अपील की. लेकिन 23 मार्च की शाम को सजा की मुकर्रर तारीख से एक दिन पहले भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी गई.(गाँधी जी के इतने यतनों के बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को भयांक और दर्दनाक मौत, मौत के बाद भी क्रूरता…..? आखिर क्यों…?) 24 मार्च 1931 को गांधी कराची पहुंचे. तब तक भगत सिंह की मौत की खबर फैल चुकी थी. वहां खड़े नौजवान भगत सिंह जिंदाबाद और गांधी के विरोध में नारे लगा रहे थे. उन लोगों का आरोप था कि गांधी ने जानबूझकर भगत सिंह को नहीं बचाया. गांधी ने अपने भाषण में इस बात का जिक्र किया. उन्होंने कहा, "किसी खूनी, चोर या डाकू को भी सजा देना मेरे धर्म के खिलाफ है. मैं भगत सिंह को नहीं बचाना चाहता था, ऐसा शक करने की तो कोई वजह ही नहीं हो सकती. मैं वायसराय को जितनी तरह से समझा सकता था, मैंने समझाया. मैंने हर तरीका आजमा कर देखा. 23 मार्च को मैंने वायसराय के नाम एक चिट्ठी भेजी थी. इसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेलकर रख दी. लेकिन मेरी सारी कोशिशें बेकार हुईं." 
फाँसी से पहले भगत सिंह ने अपने भई कुलबंत को पत्र लिखा-
उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें।
सारा जहाँ अदू सही, आओ! मुक़ाबला करें॥  

इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी। क्या आप कल्पना कर सकते हैं, एक हुकूमत, जिसका दुनिया के इतने बड़े हिस्से पर शासन था, इसके बार में कहा जाता था कि उनके शासन में सूर्य कभी अस्त नहीं होता। इतनी ताकतवर हुकूमत, एक 23 साल के युवक से भयभीत हो गई थी। उनकी मृत्यु की ख़बर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यूयॉर्क के एक पत्र डेली वर्कर ने छापा। इसके बाद भी कई मार्क्सवादी पत्रों में उन पर लेख छपे, पर चूँकि भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबन्ध लगा था इसलिए भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी ख़बर नहीं थी। देशभर में उनकी शहादत को याद किया गया। 
दक्षिण भारत में पेरियार ने उनके लेख "मैं नास्तिक क्यों हूँ?" पर अपने साप्ताहिक पत्र कुडई आरसू के २२-२९ मार्च १९३१ के अंक में तमिल में सम्पादकीय लिखा। इसमें भगतसिंह की प्रशंसा की गई थी तथा उनकी शहादत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ऊपर जीत के रूप में देखा गया था। आज भी भारत और पाकिस्तान की जनता भगत सिंह को आज़ादी के दीवाने के रूप में देखती है जिसने अपनी जवानी सहित सारी जिन्दगी देश के लिये समर्पित कर दी। चाचा की शहादत से कुछ वक्त पहले जब उनके पिता कुलतार जेल में बंद भगत सिंह से मिलने गए, तो उनकी हालत देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए। इस पर चाचा ने उनसे कहा कि वे आंसू व्यर्थ बहाने के बजाए ऊर्जा बचाकर रखें, क्योंकि उनके बलिदान के बाद क्रांति की मशाल जलाए रखने की जिम्मेदारी अगली पीढ़ी की होगी। 

भगत सिंह ने छोटे भाई कुलतार के नाम एक चिट्‌ठी में लिखा-''अजीज कुलतार, तुम्हारी आंखों में आंसू देखकर दुख हुआ। हौसले से रहना, शिक्षा ग्रहण करना, अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना और क्या कहूं। इसके बाद उन्होंने पत्र में चार शेर लिखे और अंत में लिखा... खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं... तुम्हारा भाई भगत सिंह।'' पत्र में लिखे शेर-----

उसे फिक्र है हरदम नया तर्जे जफा क्या है। हमें ये शौक है देखें सितम की इंतहां क्या है।
(अंग्रेजों की ओर इशारा करते हुए भगत सिंह लिखते हैं वो इस चिंता में हैं कि हमें कैसे यातनाएं दें, हमें ये देखने का शौक है कि वो हमें कितनी यातनाएं दे सकते हैं)

दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्यों गिला करें सारा जहां अदू सही आओ मुकाबला करें। 

(हम क्यों शिकायत करें किसी खराबी की हौसला हिम्मत है तो हिमालय की परेशानी से टकरा जाएंगे)

कोई दम का महमा हूं अहले महफिल चिराग ए सहर हूं बुझना चाहता हूं।

 (मैं सुबह की दीपक की तरह हूं जब दिन निकलेगा दीपक बुझ जाएगा) 

मेरी हवा में रहेगी ख्याल की बिजली ये मुश्त ए खाक है फानी रहे ना रहे।

 (मेरे विचार हमेशा रहेंगे ये मिट्‌टी का शरीर रहे न हरे,पीढ़ियों को प्रेरित करेंगे जैसे बादलों से बिजली निकलती है )

खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं....

भारत के पंजाब के गांव खटकड़कलां में शहीद-ए-आजम भगत सिंह का पैतृक निवास है। खटकड़कलां गांव फगवाड़ा-रोपड़ नेशनल हाईवे पर उपमंडल बंगा से 3 किमी की दूरी पर स्थित है। देश के बंटवारे के बाद भगत सिंह की मां विद्यावती और पिता किशन सिंह यहीं आकर रहने लगे थे। किशन सिंह की यहां आने के बाद मौत हो गई थी, जबकि भगत सिंह की मां विद्यावती वर्ष 1975 तक यहीं रहीं।

22 मार्च, 1931 अपने साथियों को लिखा पत्र

साथियों,

स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता. लेकिन एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं,कि मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता.

मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है- इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता.आज मेरी कमजोरियां जनता के सामने नहीं हैं. अगर मैं फांसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए. लेकिन दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते मेरे फांसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी.

हां, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवां भाग भी पूरा नहीं कर सका. अगर स्वतंत्र, जिंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता. इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फांसी से बचे रहने का नहीं आया. मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है. अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है.कामना है कि यह और नजदीक हो जाए.

आपका साथी

भगतसिंह

भगत सिंह का भाई के नाम आखिरी खत

महान स्वतंत्रता सेनानी शहीद भगत सिंह अपने भाई को बहुत प्रेम करते थे. उन्होंने अपने अंतिम वक्त में अपने भाई कुलबीर सिंह को भी एक पत्र लिखा था. जिसमें उन्होंने लिखा था-

लाहौर सेंट्रल जेल,

3 मार्च, 1931

प्रिय कुलबीर सिंह,

तुम्हारा खैर-अंदेश

भगत सिंह

शहीद भगत सिंह के यही क्रांतिकारी विचार आगे चलकर एक ज्वाला बने, जिन्होंने भारत में कई वीरों को प्रोत्साहित किया. अनेकों अनेक बहादुर स्वतंत्रता सेनानियों में भगत सिंह का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा है और हमेशा लिखा रहेगा. क्योंकि उन्हीं की बदौलत आज हम आजाद हैं और खुली हवा में सांस ले रहे हैं. उनके जैसे क्रांतिकारी और दूरदर्शी विचारों का ही निचोड़ है जो आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. तुमने मेरे लिए बहुत कुछ किया. मुलाकात के वक़्त खत के जवाब में कुछ लिख देने के लिए कहा. कुछ अल्फाज लिख दूं, बस- देखो, मैंने किसी के लिए कुछ न किया, तुम्हारे लिए भी कुछ नहीं. आजकल बिल्कुल मुसीबत में छोड़कर जा रहा हूं. तुम्हारी जिन्दगी का क्या होगा? गुजारा कैसे करोगे? यही सब सोचकर कांप जाता हूं, मगर भाई हौसला रखना, मुसीबत में भी कभी मत घबराना. इसके सिवा और क्या कह सकता हूं. अमेरिका जा सकते तो बहुत अच्छा होता, मगर अब तो यह भी नामुमकिन मालूम होता है. आहिस्ता-आहिस्ता मेहनत से पढ़ते जाना. अगर कोई काम सीख सको तो बेहतर होगा, मगर सब कुछ पिता जी की सलाह से करना. जहां तक हो सके, मुहब्बत से सब लोग गुजारा करना. इसके सिवाय क्या कहूँ?जानता हूं कि आज तुम्हारे दिल के अन्दर गम का सुमद्र ठाठें मार रहा है. भाई तुम्हारी बात सोचकर मेरी आंखों में आंसू आ रहे हैं, मगर क्या किया जाए, हौसला करना. मेरे अजीज, मेरे बहुत-बहुत प्यारे भाई, जिन्दगी बड़ी सख्त है और दुनिया बड़ी बे-मुरव्वत. सब लोग बड़े बेरहम हैं. सिर्फ मुहब्बत और हौसले से ही गुजारा हो सकेगा. कुलतार की तालीम की फिक्र भी तुम ही करना. बड़ी शर्म आती है और अफ़सोस के सिवाय मैं कर ही क्या सकता हूं. साथ वाला ख़त हिन्दी में लिखा हुआ है. ख़त ‘के’ की बहन को दे देना. अच्छा नमस्कार, अजीज भाई अलविदा… रुख़सत.

भगत सिंह ने लाहौर में लिखा, जिसका हर पन्ना जगाता है सरफ़रोशी की तमन्ना!

यह कोई आम डायरी नहीं है. उर्दू और अंग्रेजी (English) में लिखी गई इस डायरी के पन्ने अब पुराने हो चले हैं लेकिन इसमें दर्ज एक-एक शब्द सरफ़रोशी की समां जला देते हैं. हम बात कर रहे हैं शहीद-ए-आजम भगत सिंह (Shaheed Bhagat Singh) के उस ऐतिहासिक दस्तावेज का जिसे उन्होंने अपने आखिरी दिनों में लाहौर (अब पाकिस्तान) जेल में लिखी थी. आज इस महान आजादी के दीवाने का जन्मदिन (Birthday) है. सिर्फ 23 साल की उम्र में शहादत को प्राप्त‍ करने वाले भगत सिंह पढ़ने-लिखने में काफी रुचि लेते थे. इसीलिए वो जेल में रहते हुए भी अपने विचार लिखना चाहते थे. जेल (Jail) प्रशासन ने 12 सितंबर, 1929 को उन्हें डायरी प्रदान की. जिसमें उन्होंने अपने विचार लिखे. इस पर जेलर और भगत सिंह के हस्ताक्षर हैं. इसका एक-एक पन्ना उनके पूरे व्यक्तित्व को समझने के लिए काफी है.भगत सिंह लिखते हैं' महान लोग इसलिए महान हैं क्योंकि हम घुटनों पर हैं. आइए, हम उठें!' इसके पेज नंबर 177 पर वह लिखते हैं "यह प्राकृतिक नियम के विरुद्ध है कि कुछ मुट्ठी भर लोगों के पास सभी चीजें इफरात में हों और जन साधारण के पास जीवन के लिए जरूरी चीजें भी न हों." इसके 41वें पेज पर धर्म के बारे में उन्होंने अपने विचार जाहिर किए हैं.'लोग धर्म द्वारा उत्पन्न झूठी खुशी से छुटकारा पाए बिना सच्ची खुशी हासिल नहीं कर सकते. यह मांग कि लोगों को इस भ्रम से मुक्त हो जाना चाहिए, उसका मतलब यह मांग है कि ऐसी स्थिति को त्याग देना चाहिए जिसमें भ्रम की जरूरत होती है.' शहीद-ए-आजम भगत सिंह की आवाज, उनके क्रांतिकारी विचार आम लोगों तक पहुंचाने के लिए पहली बार उनकी जेल डायरी हिंदी में छपवाई गई है. खास बात यह है कि इसमें एक तरफ भगत सिंह की लिखी डायरी के पन्नों की स्कैन प्रति लगाई गई है और दूसरी तरफ उसका ट्रांसलेशन (अनुवाद) है. शहीद-ए-आजम ने अंग्रेजी और उर्दू में डायरी लिखी है. इस पर लाहौर जेल (Lahore Jail) के जेलर के भी हस्ताक्षर हैं. डायरी पर 'नोटबुक' भारती भवन बुक सेलर लाहौर छपा हुआ है. इसके पेज नंबर 124 पर उन्होंने Aim of life शीर्षक से लिखा है, 'ज़िंदगी का मकसद अब मन पर काबू करना नहीं बल्कि इसका समरसता पूर्ण विकास है. मौत के बाद मुक्ति पाना नहीं बल्कि दुनिया में जो है उसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग करना है. सत्य, सुंदर और शिव की खोज ध्यान से नहीं बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी के वास्तविक अनुभवों से करना भी है. सामाजिक प्रगति सिर्फ कुछ लोगों की नेकी से नहीं, बल्कि अधिक लोगों के नेक बनने से होगी. आध्यात्मिक लोकतंत्र अथवा सार्वभौम भाईचारा तभी संभव है जब सामाजिक, राजनीतिक और औद्योगिक जीवन में अवसरों की समानता हो.'यहां भी वो समानता की बात करते नजर आते हैं.पूंजीवाद और साम्राज्यवाद को बताया है खतरा, लाहौर में जन्मे भगत सिंह ने अपनी डायरी में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के खतरे भी बताए हैं. डायरी के पन्ने उनकी साहित्यिक रुचि का भी बयान करते हैं. जिसमें उन्होंने स्वच्छंदवाद के हिमायती मशहूर अमेरिकी कवि जेम्स रसेल लावेल की आजादी के बारे में लिखी गई कविता ‘फ्रीडमʼ लिखी है. इसके अलावा शिक्षा नीति, जनसंख्या, बाल मजदूरी और सांप्रदायिकता आदि विषयों को भी छुआ है.जो गम की घड़ी भी खुशी से गुजार दे... -शहीद-ए-आजम भगत सिंह के चाहने वाले करोड़ों में हैं, लेकिन क्‍या आपको पता है कि भगत सिंह किस क्रांतिकारी के प्रशंसक थे? भगत सिंह स्‍वतंत्रता सेनानी बटुकेश्‍वर दत्‍त के प्रशंसक थे. इसका एक सबूत उनकी जेल डायरी में है. उन्‍होंने बटुकेश्‍वर दत्‍त का एक ऑटोग्राफ लिया था.बटुकेश्‍वर दत्त और भगत सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में कैद थे. बटुकेश्‍वर के लाहौर जेल से दूसरी जगह शिफ्ट होने के चार दिन पहले भगत सिंह उनसे जेल के सेल नंबर 137 में मिलने गए थे. यह तारीख थी 12 जुलाई, 1930. इसी दिन उन्‍होंने अपनी डायरी के पेज नंबर 65 और 67 पर उनका ऑटोग्राफ लिया.भगतसिंह 23 वर्ष की आयु में फाँसी चढ़ गये, तो उससे छोटे कुलतार सिंह और  कुलवीर सिंह भी कई वर्ष जेल में रहे। वीर माता विद्यावती देवी ने दिल्ली के एक अस्पताल में 01 जून, 1975 को अंतिम साँस ली।

                                                                   भगत सिंह का मृत्यु प्रमाण पत्र

  बटुकेश्वर दत्त भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी थे। बटुकेश्वर दत्त को देश ने सबसे पहले 8 अप्रैल 1929 को जाना, जब वे भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में बम विस्फोट के बाद गिरफ्तार किए गए। उन्होनें आगरा में स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित करने में उल्लेखनीय कार्य किया था। उनका पैत्रिक गाँव बंगाल के 'बर्दवान ज़िले' में था, पर पिता 'गोष्ठ बिहारी दत्त' कानपुर में नौकरी करते थे।





बटुकेश्वर ने 1925 ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की और तभी माता व पिता दोनों का देहान्त हो गया। इसी समय वे सरदार भगतसिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद के सम्पर्क में आए और क्रान्तिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’ के सदस्य बन गए। सुखदेव और राजगुरु के साथ भी उन्होंने विभिन्न स्थानों पर काम किया। बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला - नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा।
8 अप्रैल 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान में संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया। बटुकेश्वर दत्त यूं तो बंगाली थे। बर्दवान से 22 किलोमीटर दूर 18 नवंबर 1910 को एक गांव औरी में पैदा हुए बटुकेश्वर को बीके दत्त, बट्टू और मोहन के नाम से  जाना जाता था। हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए वो कानपुर आ गए। कानपुर शहर में ही उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से हुई। उन दिनों चंद्रशेखर आजाद झांसी, कानपुर और इलाहाबाद के इलाकों में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां चला रहे थे। 1924 में भगत सिंह भी वहां आए। देशप्रेम के प्रति उनके जज्बे को देखकर भगत सिंह उनको पहली मुलाकात से ही दोस्त मानने लगे थे। 1928 में जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन चंद्रशेखर आजाद की अगुआई में हुआ, तो बटुकेश्वर दत्त भी उसके अहम सदस्य थे। बम बनाने के लिए बटुकेश्वर दत्त ने खास ट्रेनिंग ली और इसमें महारत हासिल कर ली। एचएसआरए की कई क्रांतिकारी गतिविधियों में वो सीधे तौर पर शामिल थे। जब क्रांतिकारी गतिविधियों के खिलाफ अंग्रेज सरकार ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट लाने की योजना बनाई, तो भगत सिंह ने उसी तरह से सेंट्रल असेंबली में बम फोड़ने का इरादा व्यक्त किया, जैसे कभी फ्रांस के चैंबर ऑफ डेपुटीज में एक क्रांतिकारी ने फोड़ा था। एचएसआरए की मीटिंग हुई, तय हुआ कि बटुकेश्वर दत्त असेंबली में बम फेंकेंगे और सुखदेव उनके साथ होंगे। भगत सिंह उस दौरान सोवियत संघ की यात्रा पर होंगे, लेकिन बाद में भगत सिंह के सोवियत संघ का दौरा रद्द हो गया और दूसरी मीटिंग में ये तय हुआ कि बटुकेश्वर दत्त बम प्लांट करेंगे, लेकिन उनके साथ सुखदेव के बजाय भगत सिंह होंगे। भगत सिंह को पता था कि बम फेंकने के बाद असेंबली से बचकर निकल पाना, मुमकिन नहीं होगा, ऐसे में क्यों ना इस घटना को बड़ा बनाया जाए, इस घटना के जरिए बड़ा मैसेज दिया जाए। 8 अप्रैल 1929 का दिन था, पब्लिक सेफ्टी बिल पेश किया जाना था। बटुकेश्वर बचते-बचाते किसी तरह भगत सिंह के साथ दो बम सेंट्रल असेंबली में अंदर ले जाने में कामयाब हो गए। जैसे ही बिल पेश हुआ, विजिटर गैलरी में मौजूद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त उठे और दो बम उस तरफ उछाल दिए जहां बेंच खाली थी। जॉर्ज सस्टर और बी.दलाल समेत थोड़े से लोग घायल हुए, लेकिन बम ज्यादा शक्तिशाली नहीं थे, सो धुआं तो भरा, लेकिन किसी की जान को कोई खतरा नहीं था। बम के साथ-साथ दोनों ने वो पर्चे भी फेंके, गिरफ्तारी से पहले दोनों ने इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद जैसे नारे भी लगाए। दस मिनट के अंदर असेंबली फिर शुरू हुई और फिर स्थगित कर दी गई। उसके बाद देश भर में बहस शुरू हो गई। भगत सिंह के चाहने वाले, जहां ये साबित करने की कोशिश कर रहे थे कि बम किसी को मारने के लिए नहीं बल्कि बहरे अंग्रेजों के कान खोलने के लिए फेंके गए थे, तो वहीं अंग्रेज और अंग्रेज परस्त इसे अंग्रेजी हुकूमत पर हमला बता रहे थे। हालांकि बाद में फोरेंसिक रिपोर्ट ने ये साबित कर दिया कि बम इतने शक्तिशाली नहीं थे। बाद में भगत सिंह ने भी कोर्ट में कहा कि उन्होंने केवल अपनी आवाज रखने के लिए, बहरों के कान खोलने के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया था, ना कि किसी की जान लेने के लिए। लेकिन भगत सिंह के जेल जाते ही एचआरएसए के सदस्यों ने लॉर्ड इरविन की ट्रेन पर बम फेंक दिया।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी हुई जबकि बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सज़ा. फांसी की सजा न मिलने से वे दुखी और अपमानित महसूस कर रहे थे. बताते हैं कि यह पता चलने पर भगत सिंह ने उन्हें एक चिट्ठी लिखी. इसका मजमून यह था कि वे दुनिया को यह दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं. भगत सिंह ने उन्हें समझाया कि मृत्यु सिर्फ सांसारिक तकलीफों से मुक्ति का कारण नहीं बननी चाहिए. बटुकेश्वर दत्त ने यही किया. काला पानी की सजा के तहत उन्हें अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेजा गया.वहां से 1937 में वे बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना  लाए गए. 1938 में उनकी रिहाई हो गई. कालापानी की सजा के दौरान ही उन्हें टीबी हो गया था जिससे वे मरते-मरते बचे. जल्द ही वे महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े. उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया. चार साल बाद 1945 में वे रिहा हुए. 1947 में देश आजाद हो गया. नवम्बर, 1947 में बटुकेश्वर दत्त ने शादी कर ली और पटना में रहने लगे. लेकिन उनकी जिंदगी का संघर्ष जारी रहा.
कभी सिगरेट कंपनी एजेंट तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर उन्हें पटना की सड़कों की धूल छाननी पड़ी. बताते हैं कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे. बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया. परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं. हालांकि बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफ़ी मांगी थी.
‘‘बटुकेश्वर दत्त को कोई सम्मान नहीं दिया गया स्वाधीनता के बाद. निर्धनता की ज़िंदगी बिताई उन्होंने. पटना की सड़कों पर सिगरेट की डीलरशिप और टूरिस्ट गाइड का काम करके बटुकेश्वर ने जीवन यापन किया. उनकी पत्नी मिडिल स्कूल में नौकरी करती थीं जिससे उनका घर चला.’’ बटुकेश्वर जी का बस इतना ही सम्मान हुआ कि पचास के दशक में उन्हें एक बार चार महीने के लिए विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया. बटुकेश्वर दत्त का जीवन इसी निराशा में बीता और 1965 में उनकी मौत हो गई. आज़ादी के साठ साल बाद बटुकेश्वर दत्त को एक किताब के ज़रिए याद तो किया गया लेकिन न जाने कितने ऐसे क्रांतिकारी हैं जिन पर अभी तक एक पर्चा भी नहीं लिखा गया है.जेल से रिहा होने के बाद दत्त को ट्यूबरक्लोसिस हो गया था। लेकिन फिर भी उन्होंने महात्मा गांधी के भारत छोडो अभियान में भाग लिया और फिर से चार साल के लिए जेल गये। मोतिहारी जेल (बिहार के चंपारण जिले में) में उन्हें रखा गया था। भारत को आज़ादी मिलने के बाद, नवम्बर 1947 को उन्होंने अंजलि से शादी कर ली थी। लेकिन आज़ाद भारत ने उन्हें कोई पहचान नही दिलवाई और उन्होंने अपना पूरा जीवन इसके बाद गरीबी बोझ तले बिताया। और कुछ समय तक लंबी बीमारी से जूझे रहने के बाद अंततः 20 जुलाई 1965 को दिल्ली के AIIMS हॉस्पिटल में उनकी मृत्यु हो गयी थी। पंजाब में फिरोजपुर के पास हुसैनीवाला बाग़ में उनका अंतिम संस्कार किया गया, जहाँ उनके साथी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का भी अंतिम संस्कार उनकी मृत्यु के कुछ वर्षो पहले किया गया था। ऐसे महानुभावों को कृतज्ञ राष्ट्र हमेशा याद करता है और प्रेरणा प्राप्त करता है। ऐसे ही स्मरणीय व्यक्तित्व में शहीद भगत सिंह के साथी स्व. बटुकेश्वर दत्त का नाम सर्वोपरि है। बटुकेश्वर दत्त का त्याग और बलिदान हमेशा इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। महान क्रांतिकारियों का राष्ट्र ऋणी है।

शिवराम राजगुरु जन्म: 24 अगस्त 1908 – मृत्यु: 23 मार्च 1931) को राजगुरु के नाम से जाना जाता है जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारियों में एक थे। उन्होंने देश की आजादी के लिए आपने आप को फांसी पर चढ़वाना स्वीकार कर लिया ,परंतु कभी अंग्रेजों की गुलाम नहीं की। 

चंद्रशेखर आजाद के द्वारा स्थापित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन संगठन से राजगुरु जुड़े हुए थे। भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने जॉन सॉण्डर्स नाम के ब्रिटिश अधिकारी की हत्या कर दी थी जिसके बाद ब्रिटिश सरकार के द्वारा 23 मार्च 1931 को भगत सिंह और सुखदेव सहित राजगुरु को फांसी दे दी गई।

राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के रत्नागिरी जिले के खेड़ तहसील में हुआ था। उनके पिता का नाम हरिनारायण राजगुरु तथा माता का नाम पार्वती देवी था। उनका परिवार एक मराठी देशस्थ ब्राह्मण परिवार था। जब राजगुरु मात्र 6 वर्ष का था तब उसके पिता का देहांत हो गया था। पिता के देहांत होने के बाद घर की सारी जिम्मेदारियां राजगुरु के बड़े भाई दिनकर पर आ गई। हालांकि राजगुरु छोटा था तो उसे उच्च शिक्षा प्राप्त करने का भी अवसर मिला। उसने खेड़ में अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण की और उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए वह पुणे के न्यू इंग्लिश हाई स्कूल में दाखिल हुआ। चंद्रशेखर आजाद ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन संगठन को पुनर्स्थापित किया। इस संगठन को पुनर्स्थापित करने के बाद उन्होंने इसे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन संगठन का नाम दिया। यह संगठन क्रांतिकारियों का संगठन था जिसमें क्रांतिकारी लोग जुड़ते थे और अंग्रेजो के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियां करते थे। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन संगठन में सुखदेव, भगत सिंह व अनेकों क्रांतिकारी व्यक्ति थे जिनमें राजगुरु भी सम्मिलित थे।एक क्रांतिकारी घटना में सुखदेव, भगत सिंह व राजगुरु ने ब्रिटिश अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या कर दी। यह घटना 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में हुई थी। उन तीनों ने उस ब्रिटिश अधिकारी को इसलिए मारा था क्योंकि वो लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेना चाहते थे। साइमन कमीशन के विरोध के दौरान पुलिस ने लाला लाजपत राय को बहुत गहरी चोटें पहुंचाई जिसकी वजह से उनकी मृत्यु हो गई थी। ब्रिटिश अधिकारी की हत्या के बाद, ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह व सुखदेव सहित राजगुरु को 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गयी।

सुखदेव थापर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन और पंजाब में विविध क्रांतिकारी संगठनो के वरिष्ट सदस्य थे। उन्होंने नेशनल कॉलेज, लाहौर में पढाया भी है और वही उन्होंने नौजवान भारत सभा की स्थापना भी की थी, जिसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिशो का विरोध कर आज़ादी के लिये संघर्ष करना था।


सुखदेव का जन्म 15 मई 1907 को पंजाब में लुधियाणा के नौघरा में हुआ था। उनके पिता का नाम रामलाल और माता का नाम राल्ली देवी था। सुखदेव के पिता की जल्द ही मृत्यु हो गयी थी और इसके बाद उनके अंकल लाला अचिंत्रम ने उनका पालन पोषण किया था। किशोरावस्था से ही सुखदेव ब्रिटिशो द्वारा भारतीयों पर किये जा रहे अत्याचारों से चिर-परिचित थे। उस समय ब्रिटिश भारतीय लोगो के साथ गुलाम की तरह व्यवहार करते थे और भारतीयों लोगो को घृणा की नजरो से देखते थे। इन्ही कारणों से सुखदेव क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हुए और भारत को ब्रिटिश राज से मुक्त कराने की कोशिश करते रहे।इसके बाद सुखदेव ने दुसरे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर “नौजवान भारत सभा” की स्थापना भारत में की। इस संस्था ने बहुत से क्रांतिकारी आंदोलनों में भाग लिया था और आज़ादी के लिये संघर्ष भी किया था। सुखदेव ने उनके नौजवान साथी भगत सिंह, भगवती चरण बोहरा, कौम्रेड रामचंद्र इत्यादी के साथ संघटित होकर देश के स्वतंत्रता संग्राम मे योगदान देने के लिये शुरुवात की। इसके लिये बाद में सुखदेव  हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन  और पंजाब के कुछ क्रांतिकारी संगठनो में शामिल हुए। सुखदेव एक देशप्रेमी क्रांतिकारी और नेता थे जिन्होंने लाहौर में नेशनल कॉलेज के विद्यार्थियों को पढाया भी था और समृद्ध भारत के इतिहास के बारे में बताकर विद्यार्थियों को वे हमेशा प्रेरित करते रहते थे। दुसरे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर सुखदेव ने  “नौजवान भारत सभा” की स्थापना भारत में की। इस संस्था ने बहुत से क्रांतिकारी आंदोलनों में भाग लिया था और आज़ादी के लिये संघर्ष भी किया था। बाद में सुखदेव हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन और पंजाब के कुछ क्रांतिकारी संगठनो में शामिल हुए। वे एक देशप्रेमी क्रांतिकारी और नेता थे जिन्होंने लाहौर में नेशनल कॉलेज के विद्यार्थियों को पढाया भी था और समृद्ध भारत के इतिहास के बारे में बताकर विद्यार्थियों को वे हमेशा प्रेरित करते रहते थे।सुखदेव ने बहुत से क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लिया है जैसे 1929 का “जेल भरो आंदोलन” । इसके साथ-साथ वे भारतीय स्वतंत्रता अभियान के भी सक्रीय सदस्य थे। भगत सिंह  और  शिवराम राजगुरु  के साथ मिलकर वे लाहौर षड़यंत्र में सह-अपराधी भी बने थे। 1928 में लाला लाजपत राय की मृत्यु के बाद यह घटना हुई थी। 1928 में ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन साइमन के अंडर एक कमीशन का निर्माण किया, जिसका मुख्य उद्देश्य उस समय में भारत की राजनितिक अवस्था की जाँच करना और ब्रिटिश पार्टी का गठन करना था।लेकिन भारतीय राजनैतिक दलों ने कमीशन का विरोध किया क्योकि इस कमीशन में कोई भी सदस्य भारतीय नही था। बाद में राष्ट्रिय स्तर पर उनका विरोध होने लगा था। जब कमीशन 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर गयी तब लाला लाजपत राय ने अहिंसात्मक रूप से शांति मोर्चा निकालकर उनका विरोध किया लेकिन ब्रिटिश पुलिस ने उनके इस मोर्चे को हिंसात्मक घोषित किया।

इसके बाद जेम्स स्कॉट ने पुलिस अधिकारी को विरोधियो पर लाठी चार्ज करने का आदेश दिया और लाठी चार्ज के समय उन्होंने विशेषतः लाला लाजपत राय को निशाना बनाया। और बुरी तरह से घायल होने के बाद लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गयी थी। जब 17 नवम्बर 1928 को लाला लाजपत राय की मृत्यु हुई थी तब ऐसा माना गया था की स्कॉट को उनकी मृत्यु का गहरा धक्का लगा था।लेकिन तब यह बात ब्रिटिश पार्लिमेंट तक पहुची तब ब्रिटिश सरकार ने लाला लाजपत राय की मौत का जिम्मेदार होने से बिल्कुल मना कर दिया था।इसके बाद सुखदेव ने भगत सिंह के साथ मिलकर बदला लेने की ठानी और वे दुसरे उग्र क्रांतिकारी जैसे शिवराम राजगुरु, जय गोपाल और चंद्रशेखर आज़ाद  को इकठ्ठा करने लगे, और अब इनका मुख्य उद्देश्य स्कॉट को मारना ही था।

जिसमे जय गोपाल को यह काम दिया गया था की वह स्कॉट को पहचाने और पहचानने के बाद उसपर शूट करने के लिये सिंह को इशारा दे। लेकिन यह एक गलती हो गयी थी, जय गोपाल ने जॉन सौन्ड़ेर्स को स्कॉट समझकर भगत सिंह को इशारा कर दिया था और भगत सिंह और शिवराम राजगुरु ने उनपर शूट कर दिया था।

यह घटना 17 दिसम्बर 1928 को घटित हुई थी। जब चानन सिंह सौन्ड़ेर्स के बचाव में आये तो उनकी भी हत्या कर दी गयी थी। इसके बाद पुलिस ने हत्यारों की तलाश करने के लिये बहुत से ऑपरेशन भी चलाये, उन्होंने हॉल के सभी प्रवेश और निकास द्वारो को बंद भी कर दिया था।जिसके चलते सुखदेव अपने दुसरे कुछ साथियों के साथ दो दिन तक छुपे हुए ही थे। 19 दिसम्बर 1928 को सुखदेव ने भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गा देवी वोहरा को मदद करने के लिये कहा था, जिसके लिये वह राजी भी हो गयी थी। उन्होंने लाहौर से हावड़ा ट्रेन पकड़ने का निर्णय लिया। अपनी पहचान छुपाने के लिये भगत सिंह ने अपने बाल कटवा लिये थे और दाढ़ी भी आधे से ज्यादा हटा दी थी। अगले दिन सुबह-सुबह उन्होंने पश्चिमी वस्त्र पहन लिये थे, भगत सिंह और वोहरा एक युवा जोड़े की तरह आगे बढ़ रहे थे जिनके हाथ में वोहरा का एक बच्चा भी था। जबकि राजगुरु उनका सामान उठाने वाला नौकर बना था। वे वहाँ से निकलने में सफल हुए और इसके बाद उन्होंने लाहौर जाने वाली ट्रेन पकड़ ली। लखनऊ ने, राजगुरु उन्हें छोड़कर अकेले बनारस चले गए थे जबकि भगत सिंह और वोहरा अपने बच्चे को लेकर हावड़ा चले गए।दिल्ली में सेंट्रल असेंबली हॉल में बमबारी करने के बाद सुखदेव और उनके साथियों को पुलिस ने पकड़ लिया था और उन्होंने मौत की सजा सुनाई गयी थी।

23 मार्च 1931 को सुखदेव थापर, भगत सिंह और शिवराम राजगुरु को फाँसी दी गयी थी और उनके शवो को रहस्यमयी तरीके से सतलज नदी के किनारे पर जलाया गया था। सुखदेव ने अपने जीवन को देश के लिये न्योछावर कर दिया था और सिर्फ 24 साल की उम्र में वे शहीद हो गए थे।

भारत को आज़ाद कराने के लिये अनेकों भारतीय देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। ऐसे ही देशभक्त शहीदों में से एक थे, सुखदेव थापर, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत को अंग्रेजों की बेंड़ियों से मुक्त कराने के लिये समर्पित कर दिया। सुखदेव  महान क्रान्तिकारी भगत सिंह के बचपन के मित्र थे।दोनों साथ बड़े हुये, साथ में पढ़े और अपने देश को आजाद कराने की जंग में एक साथ भारत माँ के लिये शहीद हो गये। 23 मार्च 1931 की शाम 7 बजकर 33 मिनट पर सेंट्रल जेल में इन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया और खुली आँखों से भारत की आजादी का सपना देखने वाले ये तीन दिवाने हमेशा के लिये सो गये।

                मेरी हवा में रहेगीं ख्याल की बिजली ,ये मुश्त ए खाक है फानी रहे ना रहे ॥॥

यह देश है वीर जवानों का…अलबेलों का मस्तानों का…

इस देश का यारों क्या कहना …यह देश है वीरों का गहना….”


आपका
देवेन्द्र पाण्डेय