गुरुवार, 29 जून 2023

आत्महत्या का आनंद लेना बंद करो 
स्वयं को पहचानो सुनो वेद और पुराण क्या कहते है ।
चार वेद और 18 पुराण अर्थात् सकल ब्रह्मांड ॥
फिर भी सनातन कमजोर और सनातनी मजबूर है…?
सम्पूर्ण विश्व के ज्ञान को खुद में समेटने बाले भ्रमित सनातनी (हिन्दू) सत्य को स्वीकारों ।

👇स्वयं से स्वयं का परिचय चार वेद👇

ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद ऋग्वेद है जो पद्यात्मक है। इसके 10 मंडल (अध्याय) में 1028 सूक्त है जिसमें 10589 हजार ( ऋचायें - इश्लोक - मंत्र ) हैं।  ऐसा भी माना जाता है कि इस वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की कुल संख्या 432000 है।  ऋग्वेद दुनिया की प्रथम पुस्तक और प्रथम धर्मग्रंथ है। वेद ईश्वर द्वारा ऋषियों को सुनाए गए ज्ञान पर आधारित है इसीलिए इसे श्रुति कहा गया है। सामान्य भाषा में वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वेद पुरातन ज्ञान विज्ञान का अथाह भंडार है। इसमें मानव की हर समस्या का समाधान है। पहले ऋग्वेद ही था। उसके कुछ श्लोकों को मिलाकर नए श्लोकों के साथ फिर सामवेद, फिर यजुर्वेद और अंत में अथर्ववेद की रचना हुई। ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान।  इस वेद की 5 शाखाएं हैं- शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन।- ऋग्वेद में कई ऋषियों द्वारा रचित विभिन्न छंदों में लगभग 400 स्तुतियां या ऋचाएं हैं। ये स्तुतियां अग्नि, वायु, वरुण, इन्द्र, विश्वदेव, मरुत, प्रजापति, सूर्य, उषा, पूषा, रुद्र, सविता आदि देवताओं को समर्पित हैं। इन स्तुतियों में देवताओं के सामर्थ्य, कार्य तथा सृष्टि में उसकी भूमिका के महत्व को बताया गया है, ऋग्वेद में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का उल्लेख मिलता है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है। वेदों के उपवेद- ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।
 
वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियां भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियां बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।

यजुर्वेद - यजुर्वेद में  1975 ( ऋचायें - इश्लोक - मंत्र ) इसमें ऋग्वेद के 663 मंत्र पाए जाते हैं। यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रह्माण, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। यजुर्वेद में : सविता, यज्ञ, विष्णु, अग्नि, प्रजापति, इंद्र, वायु, विद्युत, धौ, द्यावा, ब्रह्मस्पति, मित्रावरुण, पितर, पृथ्वी,पूजित देव है। यजुरवेद को कर्मकांड का मुख्य वेद माना गया है । यजुर्वेद मे 39 अध्याय मे पूजा के मंत्र, और यज्ञ करने के मंत्र है । अमावश्या के यज्ञ का विधान , पुर्णिमा के यज्ञ का विधान , नित्य किए जाने वाले यज्ञ का विधान , राजसूय यज्ञ , अश्वमेघ यज्ञ तथा छोटे बड़े यज्ञों का विवरण है । इसके अलावा 4 पुरुषार्थ की जानकारी भी हमे यजुर्वेद से मिलती है । चार पुरुषार्थ जीवन को कैसे सफल बनाते है । चार पुरुषार्थ पूर्ण करने वाला मनुष्य कैसे अपने जीवन को सफल बनाता है । चार पुरुषार्थ धर्म ,अर्थ , काम और मोक्ष के बारे मे पूरा विवरण यजुर्वेद मे मिलता है ।
ऋग्वेद के ज्ञाता विद्वान को होता कहते है । यजुर्वेद के विद्वान को अध्वर्यू , सामवेद के ज्ञाता विद्वान को उदगाता और अथर्वेद के ज्ञाता विद्वान को ब्रह्मा कहते है । वैदिक पूजा मे प्रयोग किए जाने वाले सभी मंत्र यजुरवेद के होते है । वेद मंत्रो से की गयी पूजा और यज्ञ का अवश्य ही मिलता है । जैसे ऋग्वेद हमे पूरे ब्रह्मांड और प्रकृति की वैज्ञानिक जानकारी देता है उसी प्रकार यजुर्वेद हमे आध्यात्मिक यज्ञ , हवन और पूजा पाठ की जानकारी देता है ।यह वेद गद्य मय है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मंत्र हैं। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण।
 
कृष्ण : वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है। कृष्ण की चार शाखाएं हैं।
शुक्ल : याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है। शुक्ल की दो शाखाएं हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में च्ब्रीहिधान्यों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावा, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का भी विषय इसमें उपलब्ध है है।

सामवेद- सामवेद गीत-संगीत प्रधान है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके 1875 मन्त्रों मे से 99 को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं। केवल 17 मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है, जिसका एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा वेदानां सामवेदोऽस्मि कहना भी है।

सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें शामिल किये गये है। सामवेद संहिता में जो 1875 मन्त्र हैं, उनमें से 1504 मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने की जानकारी मिलती है। वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गृहसूत्र को देखने पर 13 शाखाओं का पता चलता है। इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (1) कौथुमीय, (2) राणायनीय और (3) जैमिनीय। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है। ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं। सामवेद का प्रमुख देवता सविता (सूर्य) है , किन्तु सूर्य के अलावा इंद्र तथा सोम का भी वर्णन मिलता है । सामवेद को भारतीय संगीत का मूल माना जाता है।

अथर्ववेद-  हिन्दू धर्म के पवित्र चार वेदो में से चौथे क्रम का अथर्ववेद है अथर्ववेद में 5977 ( ऋचायें - इश्लोक - मंत्र ) हैं। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है, इसमें देवताओ की स्तुति, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। जिस राजा के राज्य में अथर्ववेद का विद्वान रहता हो उस राज्य में शांति स्थापना में लीन रहता है।अथर्ववेद से आयुर्वेद में विश्वास किया जाने लगा था। अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों का वर्णन अथर्ववेद में है। अथर्ववेद गृहस्थाश्रम के अंदर पति-पत्नी के कर्त्तव्यों तथा विवाह के नियमों, मान-मर्यादाओं का उत्तम विवेचन करता है। अथर्ववेद में ब्रह्म की उपासना संबन्धी बहुत से मन्त्र हैं। अथर्ववेद का ज्ञान भगवान ने सबसे पहले महर्षि अंगिरा को दिया था, फिर महर्षि अंगिरा ने वह ज्ञान ब्रह्मा को दिया | भूगोल, खगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ, आयुर्वेद, गंभीर से गंभीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गुह्य तत्त्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्यचिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मृत्यु को दूर करने के उपाय, मोक्ष, प्रजनन-विज्ञान अदि सैकड़ों लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है। आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का महत्त्व अत्यन्त सराहनीय है। अथर्ववेद में शान्ति-पुष्टि तथा अभिचारिक दोनों तरह के अनुष्ठन वर्णित हैं।

चरणव्यूह- ग्रंथ के अनुसार अथर्वसंहिता की नौ शाखाएँ हैं- 1. पैपल, 2. दान्त, 3. प्रदान्त, 4. स्नात, 5. सौल, 6. ब्रह्मदाबल, 7. शौनक, 8. देवदर्शत और 9. चरणविद्या,वर्तमान में केवल दो शाखा की जानकारी मिलती हैं। 1.जिसका पहला मन्त्र- शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु..... इत्यादि है वह पिप्पलाद संहिताशाखा तथा २.ये त्रिशप्ता परियन्ति विश्वारुपाणि विभ्रत....इत्यादि पहला मन्त्रवाला शौनक संहिता शाखा |जिसमें सेशौनक संहिता ही उपलब्ध हो पाती है। वैदिकविद्वानों के अनुसार 759 सूक्त ही प्राप्त होते हैं। सामान्यतः अथर्ववेद में 6000 मन्त्र हैं।  अथर्ववेद में सम्पूर्ण 5977 ( ऋचायें - इश्लोक - मंत्र ) की संख्या 5977 हैं।


अथाह ज्ञान विज्ञान के भण्डार👆ये है हमारे चार वेद ।

👇स्वयं से स्वयं का परिचय 18 पुराण👇

नारद पुराण के अनुसार प्राचीन काल में एक ही पुराण था जिसका विस्तार 100 करोड़ श्लोकों में था जो आज भी देवलोक में विद्यमान है। समयानुसार संसार में पुराणों का ग्रहण न होता देख भगवान विष्णु ने ब्रह्मवेत्ता महात्मा व्यासजी के रूप में प्रकट होकर सम्पूर्ण लोकों के हित के लिए चार लाख श्लोकों के पुराण का संग्रह किया और उसे 18 भागों में विभक्त करके 18 पुराणों की रचना की। 

ब्रह्म पुराण - सम्पूर्ण ब्रह्म पुराण में 246 अध्याय दिए गए है। इसमें 10,000 श्लोक की संख्या  है। ब्रह्म पुराण में लोमहषर्ण ऋषि और शौनक मुनियो का संवाद से चित्रित है। प्राचीन कल में पवित्र भूमि नैमिष अरण्य के वन में व्यास शिष्य सूत मुनि ने यह पुराण समान ऋषि वृन्द में सुनाया गया था। इस पुराण में सृष्टि, मनुवंशदेवताप्राणिपुथ्वीभूगोलनरकस्वर्गमंदिरतीर्थ आदि की समीक्षा है। जम्बू द्रीप और अन्य द्व्रिपो का वर्णन, भारतवर्ष की महिमा का भी वर्णन मिलता है। इस पुराण में भारतवर्ष के तीर्थों- भद्र तीर्थ, पतत्रि तीर्थ, विप्र तीर्थ, भानु तीर्थ, भिल्ल तीर्थ आदि का विस्तार से उल्लेख किया गया है। इस पुराण में शिव-पार्वती विवाह, कृष्ण लीला, विष्णु अवतार, विष्णु पूजन, वर्णाश्रम, श्राद्धकर्म वर्णन मिलता है।

'ब्रह्म पुराण' ब्रह्मपुराण का आरंभ इस कथा के अनुसार होता हे की नैमिषारण्य नामक वन में ऋषि मुनियो वहां ज्ञानार्जन के लिए एकत्रित हुए। ऋषि मुनियो के आगमन के कुछ दिनों में वहां पर सूतजी का भी आगमन हुआ। फिर ऋषि मुनियो ने सूतजी का आदर-सत्कार किया और बोले हे भगवन् ! आप अत्यन्त ज्ञानी हैं। हम पुराणों की कथा का श्रवण करना चाहते हे इसलिए हे भगवन् ! हमें पुराणों की कथा सुनाइए। यह सुनकर सूतजी बोले, आप मुनियों की उत्सुकता अति श्रेष्ठ है, इसलिए मैं आपको ब्रह्म पुराण सुनाऊंगा।गणना की दृष्टि से सर्वप्रथम गिना जाता है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यह प्राचीनतम है। काल की दृष्टि से इसकी रचना बहुत बाद में हुई है। इस पुराण में साकार ब्रह्म की उपासना का विधान है। इसमें 'ब्रह्म' को सर्वोपरि माना गया है। इसीलिए इस पुराण को प्रथम स्थान दिया गया है। कर्मकाण्ड के बढ़ जाने से जो विकृतियां तत्कालीन समाज में फैल गई थीं, उनका विस्तृत वर्णन भी इस पुराण में मिलता है। यह समस्त विश्व ब्रह्म की इच्छा का ही परिणाम है। इसीलिए उसकी पूजा सर्वप्रथम की जाती है। वेदवेत्ता महात्मा व्यासजी ने सम्पूर्ण लोकों के हित के लिये पहले ब्रह्म पुराण का संकलन किया। वह सब पुराणों में प्रथम और धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष देनेवाला है। उसमें नाना प्रकार के आख्यान और इतिहास हैं। उसकी श्लोक-संख्या दस हज़ार है। मुनीश्वर! उसमें देवताओं, असुरों और दक्ष आदि प्रजापतियों की उत्पत्ति कही गयी है। तदनन्तर उसमें लोकेश्वर भगवान सूर्य के पुण्यमय वंश का वर्णन किया गया है, जो महापातकों का नाश करने वाला है। उसी वंश में परमानन्दस्वरूप तथा चतुर्व्यूहावतारी भगवान श्रीरामचन्द्र जी के अवतार की कथा कही गयी है। तदनन्तर उस पुराण में चन्द्रवंश का वर्णन आया है और जगदीश्वर श्रीकृष्ण के पापनाशक चरित्र का भी वर्णन किया गया है। सम्पूर्ण द्वीपों, समस्त वर्षों तथा पाताल और स्वर्गलोक का वर्णन भी उस पुराण में देखा जाता है। नरकों का वर्णन, सूर्यदेव की स्तुति और कथा एवं पार्वतीजी के जन्म तथा विवाह का प्रतिपादन किया गया है। तदनन्तर दक्ष प्रजापति की कथा और एकाम्नकक्षेत्र का वर्णन है।नारद! इस प्रकार इस ब्रह्म पुराण के पूर्व भाग का निरूपण किया गया है। इसके उत्तर भाग में तीर्थयात्रा-विधिपूर्वक पुरुषोत्तम क्षेत्र का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। इसी में श्रीकृष्णचरित्र का विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है।यमलोक का वर्णन तथा पितरों के श्राद्ध की विधि है। इस उत्तर भाग में ही वर्णों और आश्रमों के धर्मों का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है। वैष्णव-धर्म का प्रतिपादन, युगों का निरूपण तथा प्रलय का भी वर्णन आया है। योगों का निरूपण, सांख्यसिद्धान्तों का प्रतिपादन, ब्रह्मवाद का दिग्दर्शन तथा पुराण की प्रशंसा आदि विषय आये हैं। इस प्रकार दो भागों से युक्त ब्रह्म पुराण का वर्णन किया गया है, जो सब पापों का नाशक और सब प्रकार के सुख देने वाला है। इसमें सूत और शौनक का संवाद है। यह पुराण भोग और मोक्ष देने वाला है। जो इस पुराण को लिखकर वैशाख की पूर्णिमा को अन्न, वस्त्र और आभूषणों द्वारा पौराणिक ब्राह्मण की पूजा करके उसे सुवर्ण और जलधेनुसहित इस लिखे हुए पुराण का भक्तिपूर्वक दान करता है, वह चन्द्रमासूर्य और तारों की स्थितिकाल तक ब्रह्मलोक में वास करता है। ब्रह्मन! जो ब्रह्म पुराण की इस अनुक्रमणिका (विषय-सूची) का पाठ अथवा श्रवण करता है, वह भी समस्त पुराण के पाठ और श्रवण का फल पा लेता है। जो अपनी इन्द्रियों को वश में करके हविष्यान्न भोजन करते हुए नियमपूर्वक समूचे ब्रह्म पुराण का श्रवण करता है, वह ब्रह्मपद को प्राप्त होता है। वत्स! इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ? इस पुराण के कीर्तन से मनुष्य जो-जो चाहता है, वह सब पा लेता है। इस जगत् का प्रत्यक्ष जीवनदाता और कर्त्ता-धर्त्ता 'सूर्य' को माना गया है। इसलिए सर्वप्रथम सूर्य नारायण की उपासना इस पुराण में की गई है। सूर्य वंश का वर्णन भी इस पुराण में विस्तार से है। सूर्य भगवान की उपसना-महिमा इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है। सम्पूर्ण 'ब्रह्म पुराण' में दो सौ छियालीस अध्याय हैं। इसकी श्लोक संख्या लगभग चौदह हज़ार है,( वर्तमान समय में मात्र 10 हजार इश्लोक ही शेष है ) । इस पुराण की कथा लोमहर्षण सूत जी एवं शौनक ऋषियों के संवाद के माध्यम से वर्णित है। 'सूर्य वंश' के वर्णन के उपरान्त 'चन्द्र वंश' का विस्तार से वर्णन है। इसमें श्रीकृष्ण के अलौकिक चरित्र का विशेष महत्त्व दर्शाया गया है। यहीं पर जम्बू द्वीप तथा अन्य द्वीपों के वर्णन के साथ-साथ भारतवर्ष की महिमा का विवरण भी प्राप्त होता है। भारतवर्ष के वर्णन में भारत के महत्त्वपूर्ण तीर्थों का उल्लेख भी इस पुराण में किया गया है। इसमें 'शिव-पार्वती' आख्यान और 'श्री कृष्ण चरित्र' का वर्णन भी विस्तारपूर्वक है। 'वराह अवतार ','नृसिंह अवतार' एवं 'वामन अवतार' आदि अवतारों का वर्णन स्थान-स्थान पर किया गया है।

पद्म पुराण के अनुसार श्राद्ध द्वारा प्रसन्न हुए पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष तथा स्वर्ग आदि प्रदान करते हैं। पद्म पुराण के अनुसार जो मनुष्य गौओं के खुर से उड़ी हुई धूलि को सिर पर धारण करता है, वह मानो तीर्थ के जल में स्नान कर लेता है और सभी पापों से छुटकारा पा जाता है। पद्म पुराण के अनुसार जो मनुष्य गौमाता की सेवा करता है, उसे गौमाता अत्यंत दुर्लभ वर प्रदान करती है। वह गौभक्त मनुष्य पुत्र, धन, विद्या, सुख आदि जिस वस्तु की इच्छा करता है, वह सब उसे प्राप्त हो जाती है।पद्म पुराण के अनुसार शालिग्राम, तुलसी और शंख- इन तीनों को एकसाथ रखने से भगवान बहुत प्रसन्न होते हैं। पद्म पुराण के अनुसार दीपक, शिवलिंग, शालिग्राम, मणि, देव प्रतिमा, शंख, मोती, माणिक्य, हीरा, स्वर्ण, तुलसी, रुद्राक्ष, पुष्प माला, जप माला, पुस्तक, यज्ञोपवीत, चंदन, यंत्र, फूल, कपूर, गोरोचन- इन वस्तुओं को भूमि पर रखने से महान पाप लगता है। पद्म पुराण के अनुसार जो स्त्री अपने पति की सेवा करती है और उसके मन के अनुकूल चलती है, वह अपने पति के पुण्य का आधा भाग प्राप्त कर लेती है।

'पद्म पुराण' हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथों में विशाल पुराण है। केवल 'स्कन्द पुराण' ही इससे बड़ा है। इस पद्म पुराण में 55000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है । वैसे तो इस पुराण से संबंधित सभी विषयों का वर्णन स्थान विशेष पर आ गया है, किन्तु इसमें प्रधानता उपाख्यानों और कथानकों की है। ये कथानक तीर्थों तथा व्रत सम्बन्धी नहीं हैं, वरन् पौराणिक पुरुषों और राजाओं से सम्बन्धित हैं। अन्य पुराणों में यही कथानक जिस रूप में प्राप्त होते हैं, यहाँ ये दूसरे रूप में हैं। ये आख्यान और उपाख्यान सर्वथा नवीन, विचित्र और सामान्य पाठकों को चमत्कृत कर देने वाले हैं। 'पद्म पुराण' प्रमुख रूप से वैष्णव पुराण है। इस पुराण की मान्यता के अनुसार 'विष्णु' की उपासना का प्रतिपादन करने वाले पुराण ही सात्विक हैं। इस पुराण में प्रसंगवश शिव का वर्णन भी प्राप्त होता है। किन्तु यह वर्णन सम्प्रदायवाद से ग्रसित न होकर उत्तम रूप में प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि त्रिदेव- ब्रह्मा, विष्णु और महेश में उन्हें विष्णु से सर्वोच्च नहीं माना गया है। यदि इस पुराण को विष्णु की उपासना के कारण 'सात्विक' माना गया है तो ब्रह्मा की उपासना करने वाले पुराणों को 'राजस' श्रेणी में रखा गया हैं इसके अलावा शिवोपासना से सम्बन्धित पुराणों को 'तामस' श्रेणी का माना गया है, जैसे- 'शिव पुराण', 'लिंग पुराण', 'कूर्म पुराण', 'मत्स्य पुराण', 'स्कन्द पुराण' और 'अग्नि पुराण'। 'पद्म पुराण' को पांच खण्डों में विभाजित किया गया है। ये खण्ड इस प्रकार हैं-
  1. सृष्टि खण्ड
  2. भूमि खण्ड
  3. स्वर्ग खण्ड
  4. पाताल खण्ड
  5. उत्तर खण्ड

उपयुक्त खण्डों के अतिरिक्त 'ब्रह्म खण्ड' और 'क्रियायोग सागर खण्ड' का वर्णन भी मिलता है, परन्तु 'नारद पुराण' में जो खण्ड सूची है, उसमें पांच ही खण्ड दिए गए हैं। उसमें ब्रह्म खण्ड और क्रियायोग सागर खण्ड का उल्लेख नहीं है। प्राय: पांच खण्डों का विवेचन ही पुराण सम्बन्धी धार्मिक पुस्तकों में प्राप्त होता है। इसलिए यहाँ पांच खण्डों पर ही प्रकाश डाला जा रहा है।

सृष्टि खण्ड में बयासी अध्याय हैं। यह पांच उपखण्डों- पौष्कर खण्ड, तीर्थ खण्ड, तृतीय पर्व खण्ड, वंशानुकीर्तन खण्ड तथा मोक्ष खण्ड में विभाजित है। इसमें मनुष्यों की सात प्रकार की सृष्टि रचना का विवरण है। साथ ही सावित्री सत्यवान उपाख्यान, पुष्कर आदि तीर्थों का वर्णन और प्रभंजन, धर्ममूर्ति, नरकासुर, कार्तिकेय आदि की कथाएं हैं। इसमें पितरों का श्राद्धकर्म, पर्वतों, द्वीपों, सप्त सागरों आदि का वर्णन भी प्राप्त होता है। आदित्य शयन और रोहिण चन्द्र शयन व्रत को अत्यन्त पुण्यशाली, मंगलकारी और सुख-सौभाग्य का सूचक बताया गया है। तीर्थ माहात्म्य के प्रसंग में यह खण्ड इस बात की सूचना देता है कि किसी भी शुक्ल पक्ष में मंगलवार के दिन या चतुर्थी तिथि को जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक श्राद्धकर्म करता है, वह कभी प्रेत योनि में नहीं पड़ता। श्रीरामचन्द्र जी ने अपने पिता का श्राद्ध पुष्कर तीर्थ में जाकर किया था, इसका वर्णन भी प्राप्त होता है। रामेश्वरम में ज्योतिर्लिंग की पूजा का उल्लेख भी इसमें मिलता है। कार्तिकेय द्वारा तारकासुर के वध की कथा भी इसमें प्राप्त होती है।

इस खण्ड में बताया गया है कि एकादशी के प्रतिदिन आंवले के जल से स्नान करने पर ऐश्वर्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। आवंले की महिमा का बखान करने के उपरान्त तुलसी की महिमा का भी वर्णन है। तुलसी का पौधा घर में रहने से भूत-प्रेत, रोग आदि कभी प्रवेश नहीं करते। इसमें व्यास जी गंगाजल के एक मूलमन्त्र का भी वर्णन करते हैं। उनके मतानुसार जो व्यक्ति निम्रवत् मन्त्र का एक बार जप करके गंगाजल से स्नान करता है, वह भगवान विष्णु के चरणों का संयोग प्राप्त कर लेता है।मन्त्र इस प्रकार है, जो सृष्टि खण्ड के गंगा माहात्म्य-45 में वर्णित है-

ॐ नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नम:। अर्थात् विश्व रूप वाली साक्षात् नारायण स्वरूप भगवती गंगा के लिए मेरा बारम्बार प्रणाम है।गंगा की स्तुति के बाद श्रीगणेश और सूर्य की स्तुति की गई है तथा संक्रान्ति काल के पुण्य फल का उल्लेख किया गया है।

भूमि खण्ड में अनेक आख्यान हैं। ब्रह्मचर्य, दान, मानव धर्म आदि का वर्णन इस खण्ड में है। जैन धर्म का विवेचन भी इसमें है। भूमि खण्ड के प्रारम्भ में शिव शर्मा ब्राह्मण द्वारा पितृ भक्ति और वैष्णव भक्ति की सुन्दर गाथा प्रस्तुत की गई है। इसके उपरान्त सोम शर्मा द्वारा भगवान विष्णु की भावना युक्त स्तुति है। इसके बाद इसके उपरान्त सोम शर्मा भगवान विष्णु की भावना युक्त स्तुति है। इसके बाद वेन पुत्र राजा पृथु के जन्म एवं चरित्र, गन्धर्व कुमार सुशंख द्वारा मृत्यु अथवा यम कन्या सुनीया को शाप, अंग की तपस्या, वेन द्वारा विष्णु की उपासना और पृथु के आविर्भाव की कथा का पुन: आवर्तन, विष्णु द्वारा दान काल के भेदों का वेन को उपदेश, सुकाला की कथा, शूकर-शूकरी की उपाख्यान, पिप्पल की पितृ तीर्थ प्रसंग में तपस्या, सुकर्मा की पितृ भक्ति, भगवान शिव की महिमा और भगवान विष्णु को प्रसन्न करने वाला स्तोत्र आदि का उल्लेख प्राप्त होता है।

ययाति की जरावस्था, कामकन्या से भेंट तथा पुत्र पुरू द्वारा यौवन दान की प्रसिद्ध कथा भी इस खण्ड में दी गई है। अन्त में गुरु तीर्थ के प्रसंग में महर्षि च्यवन की कथा, कुंजल पक्षी द्वारा अपने पुत्र उज्ज्वल को ज्ञानव्रत और स्तोत्र का उपदेश आदि का वर्णन भी इस खण्ड में मिलता हे। साथ ही 'शरीरोत्पत्तिह' का भी सुन्दर विवेचन इस खण्ड में किया गया है।

स्वर्ग खण्ड में बासठ अध्याय हैं। इसमें पुष्कर तीर्थ एवं नर्मदा के तट तीर्थों का बड़ा ही मनोहारी और पुण्य देने वाला वर्णन है। साथ ही शकुन्तला-दुष्यन्त उपाख्यान, ग्रह-नक्षत्र, नारायण, दिवोदासहरिश्चन्द्रमांधाता आदि के चरित्रों का अत्यन्त सुन्दर वर्णन यहाँ प्राप्त होता है। खण्ड के प्रारम्भ में भारतवर्ष के वर्णन में कुल सात पर्वतों, एक सौ बाईस नदियों, उत्तर भारत के एक सौ पैंतीस तथा दक्षिण भारत के इक्यावन जनपदों और मलेच्छ राजाओं का भी इसमें वर्णन है। इसी सन्दर्भ में बीस बलिष्ठ राजाओं की सूची भी दी गई है। साथ ही ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का भी सुन्दर विवेचन है।

विविध तीर्थों के अन्तर्गत में नागराज तक्षक की जन्मभूमि विताता (कश्मीर), गया है कि 'ब्रह्म पुराण' हरि का मस्तक और 'पद्म पुराण' उनका हृदय है। 'विष्णु पुराण' दाईं भुजा, 'शिव पुराण' बाईं भुजा,'श्रीमद् भागवत पुराण' दो आँखेंं, 'नारद पुराण' नाभि, 'मार्कण्डेय पुराण' दायां चरण, 'अग्नि पुराण' बायां चरण, 'भविष्य पुराण' दायां घुटना, 'ब्रह्म वैवर्त पुराण' बायां घुटना, 'लिंग पुराण' दायां टखना, 'वराह पुराण' बायां टखना, 'स्कन्द पुराण' शरीर के रोएं, 'वामन पुराण' त्वचा, 'कूर्म पुराण' पीठ, 'मत्स्य पुराण' मेदा, 'गरुड़ पुराण' मज्जा और 'ब्रह्माण्ड पुराण' उनकी अस्थियां हैं। इसी खण्ड में 'एकादशी व्रत' का माहात्म्य भी बताया गया है। कहा गया है कि जितने भी अन्य व्रतोपवास हैं, उन सब में एकादशी व्रत सबसे उत्तम है। इस उपवास से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न होकर वरदान देते हैं।

पाताल खण्ड में रावण विजय के उपरान्त राम कथा का वर्णन है। श्रीकृष्ण की महिमा, कृष्ण तीर्थ, नारद का स्त्री रूप आख्यान्, रावण तथा अन्य राक्षसों का वर्णन, बारह महीनों के पर्व और माहात्म्य तथा भूगोल सम्बन्धी सामग्री भी इस खण्ड में उपलब्ध होती है। वस्तुत: इस खण्ड में भगवान विष्णु के 'रामावतार' और 'कृष्णावतार' की लीलाओं का ही वर्णन प्राप्त होता है।

उत्तर खण्ड में जलंधर राक्षस और सती पत्नी तुलसी वृन्दा की कथा तथा अनेक देवों एवं तीर्थों के माहात्म्स का वर्णन है। इस खण्ड का प्रारम्भ नारद-महादेव के मध्य बद्रिकाश्रम एवं नारायण की महिमा के संवाद के साथ होता है। इसके पश्चात् गंगावतरण की कथा, हरिद्वार का माहात्म्य; प्रयागकाशी एवं गया आदि तीर्थों का वर्णन है।

'पद्म पुराण' की रचना बारहवीं शताब्दी के बाद की मानी जाती है। इस पुराण में नन्दी धेनु उपाख्यान, बलि-वामन आख्यान, तुलाधार की कथा आदि द्वारा सत्य की महिमा का प्रतिपादन किया गया है। तुलाधार कथा से पतिव्रत धर्म की शक्ति का पता चलता है। इन उपाख्यानों द्वारा पुराणकार ने यही सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सत्य का पालन करते हुए सादा जीवन जीना सभी कर्मकाण्डों और धार्मिक अनुष्ठानों से बढ़कर है। सदाचारियों को ही 'देवता' और दुराचारियों तथा पाश्विक वृत्तियां धारण करने वाले को 'राक्षस' कहा जाता है। पूजा जाति की नहीं, गुणों की होनी चाहिए। धर्म विरोधी प्रवृत्तियों के निराकरण के लिए प्रभु कीर्तन बहुत सहायक होता है।

ब्रह्म खण्ड-इस खण्ड में पुरुषों के कल्याण का सुलभ उपाय धर्म आदि की विवेचन तथा निषिद्ध तत्वों का उल्लेख किया गया है। पाताल खण्ड में राम के प्रसंग का कथानक आया है। इससे यह पता चलता है कि भक्ति के प्रवाह में विष्णु और राम में कोई भेद नहीं है। उत्तर खण्ड में भक्ति के स्वरूप को समझाते हुए योग और भक्ति की बात की गई है। साकार की उपासना पर बल देते हुए जलंधर के कथानक को विस्तार से लिया गया है।
क्रियायोग सार खण्डक्रियायोग सार खण्ड में कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित तथा कुछ अन्य संक्षिप्त बातों को लिया गया है। इस प्रकार यह खण्ड सामान्यत: तत्व का विवेचन करता है।
  • पदम-पुराण के विषय में कहा गया है कि यह पुराण अत्यन्त पुण्य-दायक और पापों का विनाशक है। सबसे पहले इस पुराण को ब्रह्मा ने पुलस्त्य को सुनाया और उन्होंने फिर भीष्म को और भीष्म ने अत्यन्त मनोयोग से इस पुराण को सुना, क्योंकि वे समझते थे कि वेदों का मर्म इस रूप में ही समझा जा सकता है।

'विष्णु पुराण'अन्य पुराणों की अपेक्ष यह छोटा है। इसमें अब मात्र सात हजार श्लोक ही पाए जाते हैं। इस पुराण की रचना महर्षि वसिष्ठ के पौत्र और वेदव्यास के पिता पराशर ऋषि ने की है।इस पुराण में भगवान विष्णु और उनके भक्तों के बारे में वर्णन मिलता है जिसमें बहुत ही रोचक कथाएं हैं। इस पुराण में विष्णु के अवतारों का वर्णन मिलेगा जिसमें श्री कृष्ण चरित्र और राम कथा का विशेष उल्लेख है।इस पुराण के छह अध्याय है। प्रथम में सृष्टि की उत्पत्ति और काल के स्वरूप के साथ ही ध्रुव, पृथु तथा प्रह्लाद की रोचक कथाएं हैं। द्वितीय में सभी लोकों का स्वरूप वर्णन और पृथ्‍वी के नौ खंडों के साथ ही ग्रह-नक्षत्रों का वर्णन मिलेगा। तृतीय में मन्वन्तर काल, वेद शाखाओं का विस्तार, गृहस्थ धर्म और श्राद्ध-विधि आदि का वर्णन मिलेगा। चतुर्थ में सूर्य वंश और चन्द्र वंश के राजा तथा उनकी वंशावलियों का वर्णन है। पंचम में श्रीकृष्ण चरित्र और उनकी लीलाओं का वर्णन है। अंत में छठे अध्याय में प्रलय तथा मोक्ष का ज्ञान मिलेगा।
  
अठारह महापुराणों में 'विष्णु पुराण' का आकार सबसे छोटा है। किन्तु इसका महत्त्व प्राचीन समय से ही बहुत अधिक माना गया है। संस्कृत विद्वानों की दृष्टि में इसकी भाषा ऊंचे दर्जे की, साहित्यिक, काव्यमय गुणों से सम्पन्न और प्रसादमयी मानी गई है। इस पुराण में भूमण्डल का स्वरूप, ज्योतिष, राजवंशों का इतिहास, कृष्ण चरित्र आदि विषयों को बड़े तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति से यह पुराण मुक्त है। धार्मिक तत्त्वों का सरल और सुबोध शैली में वर्णन किया गया है। बिष्णु पुराण में 23000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है, जब की वर्तमान समय में मात्र (7000) ऋचायें- इश्लोक-मंत्र ही शेष है।

 बिष्णु पुराण-पहले भाग में सर्ग अथवा सृष्टि की उत्पत्ति, काल का स्वरूप और ध्रुवपृथु तथा प्रह्लाद की कथाएं दी गई हैं। दूसरे भाग में लोकों के स्वरूप, पृथ्वी के नौ खण्डों, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष आदि का वर्णन है। तीसरे भाग में मन्वन्तरवेदों की शाखाओं का विस्तार, गृहस्थ धर्म और श्राद्ध-विधि आदि का उल्लेख है। चौथे भाग में सूर्य वंश और चन्द्र वंश के राजागण तथा उनकी वंशावलियों का वर्णन है। पांचवें भाग में श्रीकृष्ण चरित्र और उनकी लीलाओं का वर्णन है जबकि छठे भाग में प्रलय तथा मोक्ष का उल्लेख है। विष्णु पुराण' में पुराणों के पांचों लक्षणों अथवा वर्ण्य-विषयों-सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित का वर्णन है। सभी विषयों का सानुपातिक उल्लेख किया गया है। बीच-बीच में अध्यात्म-विवेचन, कलिकर्म और सदाचार आदि पर भी प्रकाश डाला गया है।इस पुराण के रचनाकार पराशर ऋषि थे। ये महर्षि वसिष्ठ के पौत्र थे। इस पुराण में पृथु, ध्रुव और प्रह्लाद के प्रसंग अत्यन्त रोचक हैं। 'पृथु' के वर्णन में धरती को समतल करके कृषि कर्म करने की प्रेरणा दी गई है। कृषि-व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करने पर ज़ोर दिया गया है। घर-परिवार, ग्राम, नगर, दुर्ग आदि की नींव डालकर परिवारों को सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई है। इसी कारण धरती को 'पृथ्वी' नाम दिया गया । 'ध्रुव' के आख्यान में सांसारिक सुख, ऐश्वर्य, धन-सम्पत्ति आदि को क्षण भंगुर अर्थात् नाशवान समझकर आत्मिक उत्कर्ष की प्रेरणा दी गई है। प्रह्लाद के प्रकरण में परोपकार तथा संकट के समय भी सिद्धांतों और आदर्शों को न त्यागने की बात कही गई है। 'विष्णु पुराण' में मुख्य रूप से कृष्ण चरित्र का वर्णन है, यद्यपि संक्षेप में राम कथा का उल्लेख भी प्राप्त होता है। इस पुराण में कृष्ण के समाज सेवी, प्रजा प्रेमी, लोक रंजक तथा लोक हिताय स्वरूप को प्रकट करते हुए उन्हें महामानव की संज्ञा दी गई है। श्रीकृष्ण ने प्रजा को संगठन-शक्ति का महत्त्व समझाया और अन्याय का प्रतिकार करने की प्रेरणा दी। अधर्म के विरुद्ध धर्म-शक्ति का परचम लहराया। 'महाभारत' में कौरवों का विनाश और 'कालिया दहन' में नागों का संहार उनकी लोकोपकारी छवि को प्रस्तुत करता है। कृष्ण के जीवन की लोकोपयोगी घटनाओं को अलौकिक रूप देना उस महामानव के प्रति भक्ति-भावना की प्रतीक है। इस पुराण में कृष्ण चरित्र के साथ-साथ भक्ति और वेदान्त के उत्तम सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन हुआ है। यहाँ 'आत्मा' को जन्म-मृत्यु से रहित, निर्गुण और अनन्त बताया गया है। समस्त प्राणियों में उसी आत्मा का निवास है। ईश्वर का भक्त वही होता है जिसका चित्त शत्रु और मित्र और मित्र में समभाव रखता है, दूसरों को कष्ट नहीं देता, कभी व्यर्थ का गर्व नहीं करता और सभी में ईश्वर का वास समझता है। वह सदैव सत्य का पालन करता है और कभी असत्य नहीं बोलता । 
इस पुराण में प्राचीन काल के राजवंशों का वृत्तान्त लिखते हुए कलियुगी राजाओं को चेतावनी दी गई है कि सदाचार से ही प्रजा का मन जीता जा सकता है, पापमय आचरण से नहीं। जो सदा सत्य का पालन करता है, सबके प्रति मैत्री भाव रखता है और दुख-सुख में सहायक होता है; वही राजा श्रेष्ठ होता है। राजा का धर्म प्रजा का हित संधान और रक्षा करना होता है। जो राजा अपने स्वार्थ में डूबकर प्रजा की उपेक्षा करता है और सदा भोग-विलास में डूबा रहता है, उसका विनाश समय से पूर्व ही हो जाता है।
इस पुराण में स्त्रियों, साधुओं और शूद्रों को श्रेष्ठ माना गया है। जो स्त्री अपने तन-मन से पति की सेवा तथा सुख की कामना करती है, उसे कोई अन्य कर्मकाण्ड किए बिना ही सद्गति प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार शूद्र भी अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए वह सब प्राप्त कर लेते हैं, जो ब्राह्मणों को विभिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड और तप आदि से प्राप्त होता है। कहा गया है।
'विष्णु पुराण' के अन्तिम तीन अध्यायों में आध्यात्मिक चर्चा करते हुए त्रिविध ताप, परमार्थ और ब्रह्मयोग का ज्ञान कराया गया है। मानव-जीवन को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इसके लिए देवता भी लालायित रहते हैं। जो मनुष्य माया-मोह के जाल से मुक्त होकर कर्त्तव्य पालन करता है, उसे ही इस जीवन का लाभ प्राप्त होता है। 'निष्काम कर्म' और 'ज्ञान मार्ग' का उपदेश भी इस पुराण में दिया गया है। लौकिक कर्म करते हुए भी धर्म पालन किया जा सकता है। 'कर्म मार्ग' और 'धर्म मार्ग'- दोनों का ही श्रेष्ठ माना गया है। कर्त्तव्य करते हुए व्यक्ति चाहे घर में रहे या वन में, वह ईश्वर को अवश्य प्राप्त कर लेता है।
  • भारतवर्ष को कर्मभूमि कहकर उसकी महिमा का सुंदर बखान करते हुए पुराणकार कहता है-

इत: स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं चान्तश्च गम्यते।
न खल्वन्यत्र मर्त्यानां कर्मभूमौ विधीयते ॥

अर्थात यहीं से स्वर्ग, मोक्ष, अन्तरिक्ष अथवा पाताल लोक पाया जा सकता है। इस देश के अतिरिक्त किसी अन्य भूमि पर मनुष्यों पर मनुष्यों के लिए कर्म का कोई विधान नहीं है।

  • इस कर्मभूमि की भौगोलिक रचना के विषय में कहा गया है-

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् । वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र संतति ॥

अर्थात समुद्र कें उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो पवित्र भूभाग स्थित है, उसका नाम भारतवर्ष है। उसकी संतति 'भारतीय' कहलाती है।

  • इस भारत भूमि की वन्दना के लिए विष्णु पुराण का यह पद विख्यात है-

गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्।
कर्माण्ड संकल्पित तवत्फलानि संन्यस्य विष्णौ परमात्मभूते।
अवाप्य तां कर्ममहीमनन्ते तस्मिंल्लयं ये त्वमला: प्रयान्ति 

अर्थात देवगण निरन्तर यही गान करते हैं कि जिन्होंने स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग् पर चलने के लिए भारतभूमि में जन्म लिया है, वे मनुष्य हम देवताओं की अपेक्षा अधिक धन्य तथा भाग्यशाली हैं। जो लोग इस कर्मभूमि में जन्म लेकर समस्त आकांक्षाओं से मुक्त अपने कर्म परमात्मा स्वरूप श्री विष्णु को अर्पण कर देते हैं, वे पाप रहित होकर निर्मल हृदय से उस अनन्त परमात्म शक्ति में लीन हो जाते हैं। ऐसे लोग धन्य होते हैं।

  • 'विष्णु पुराण' में कलि युग में भी सदाचरण पर बल दिया गया है। इसका आकार छोटा अवश्य है, परंतु मानवीय हित की दृष्टि से यह पुराण अत्यन्त लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण है।


 'वायु पुराण'  में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है- 1. प्रवह, 2. आवह, 3. उद्वह, 4. संवह, 5. विवह, 6. परिवह और 7. परावह।
 
1. प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं। 
2. आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।
 
3. उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है। 
 
4. संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।
5. विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है। 
 
6. परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।
 
7. परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।
 

 'वायु पुराण' को स्वतन्त्र पुराण न मानकर 'शिव पुराण' और 'ब्रह्माण्ड पुराण' का ही अंग मानते हैं। परन्तु 'नारद पुराण' में जिन अठारह पुराणों की सूची दी गई हैं, उनमें 'वायु पुराण' को स्वतन्त्र पुराण माना गया है। चतुर्युग के वर्णन में 'वायु पुराण' मानवीय सभ्यता के विकास में सत युग को आदिम युग मानता है। वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रारम्भ त्रेता युग से कहा गया है। त्रेता युग में ही श्रम विभाजन का सिद्धान्त मानव ने अपनाया और कृषि कर्म सीखा। 'वायु पुराण' का कथानक दूसरे पुराणों से भिन्न है। यह साम्प्रदायिकता के दोष से पूर्णत: युक्त है। इसमें सूर्यचन्द्रग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि का वर्णन है, परन्तु सर्वथा नए रूप में है। विष्णु और शिव-दोनों को सम्मानजनक रूप से उपासना के योग्य माना गया है। 'वायु पुराण' के कथानक अत्यन्त सरल और आडम्बर विहीन हैं। इसमें सृष्टि रचना, मानव सभ्यता का विकास, मन्वन्तर वर्णन, राजवंशों का वर्णन, योग मार्ग, सदाचार, प्रायश्चित्त विधि, मृत्युकाल के लक्षण, युग धर्म वर्णन, स्वर, ओंकार, वेदों का आविर्भाव, ज्योतिष प्रचार, लिंगोद्भव, ऋषि लक्षण, तीर्थ, गन्धर्व और अलंकार शास्त्र आदि का वर्णन प्राप्त होता है। इसमें 112 अध्याय एवं 10,991 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है। 

'वायु पुराण'  का आरम्भ 'नारायणं नमस्कृत्य' से होता है। दूसरे श्लोक में व्यास की प्रशस्ति गायी गयी है जो अन्य संस्करणों में नहीं पायी जाती। तीसरे श्लोक में शिवभक्त की ओर निर्देश है। 104वाँ अध्याय बहुत से संस्करणों में उपलब्ध नहीं है और 'गयामाहात्मय' वाले अन्तिम अध्याय, कुछ लेखकों के मत से, पश्चात्कालीन परिवर्धन हैं। बहुत से अध्यायों में शिवपूजा की ओर विशेष संकेत। 
श्राद्ध 160 श्लोक, मोक्ष पर 35, तीर्थ पर 22, दान पर 7, ब्रह्मचारी पर 5 एवं गृहस्थ पर परंपरागत श्लोक उद्धृत हैं। अपरार्क ने लगभग 75 श्लोक उद्धृत किये हैं। स्मृतिचन्द्रिका ने श्राद्ध, अतिथि, अग्निहोत्र एवं समिधा पर श्लोक उद्धृत किये हैं। वायु ने गुप्त-वंश की ओर एक चलता संकेत कर दिया है। इसे पाँच वर्षों का एक युग विदित है।इसने मेष, तुला, मकर एवं सिंह (जिसमें बृहस्पति भी है) की चर्चाभी की है। अध्याय 87 में पूर्वाचार्यों के सिद्धान्तों के आधार पर गीतालंकारों का वर्णन किया है। ब्रह्माण्ड का अध्याय उसी विषय पर है जो वायु में है और श्लोक भी समान ही हैं। वायु में गुप्त-वंश की चर्चा आयी है और बाण ने अपने हर्षचरित एवं कादम्बरी में इसका उल्लेख किया है अत: इसकी तिथि 350 ई. एवं 550 ई. के बीच में कहीं होगी। शंकराचार्य ने अपने वेदान्तसूत्र में एक श्लोक जिस पुराण से उद्धृत किया है वह वायु पुराण ही है, केवल 'नारायण' शब्द के बदले वायु में 'महेश्वर' रखा गया है।थोड़े बहुत अन्तरों के साथ बात एक ही है। योगसूत्र, पर वाचस्पति ने तत्त्ववैशारदी में वायु को उद्धृत किया है।

श्रीमद्‌भागवत महापुराण में भगवान कृष्ण ने ज्ञान और नीति के कई उपदेश दिए हैं। उन्हीं में से एक उपदेश 6 ऐसे लोगों के बारे में बताया है जिनके बारे में बुरा सोचने या उनका अपमान करने पर मनुष्य को खुद ही इसके दुष्परिणाम झेलना पड़ते हैं। यह बात निम्नलिखित श्लोक से समझें। 
श्लोक : यदा देवेषु वेदेषु गोषु विप्रेषु साधुषु। धर्मो मयि च विद्वेषः स वा आशु विनश्यित।।-अर्थात- जो व्यक्ति देवता, वेद, गौ, ब्राह्मण, साधु और धर्म के कामों के बारे में बुरा सोचता है, उसका जल्दी ही नाश हो जाता है। यहां स्पष्ट करना जरूरी है कि ब्राह्मण उसे कहते हैं, जो कि वैदिक नियमों का पालन करते हुए 'ब्रह्म ही सत्य है' ऐसा मानता और जानता हो। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता है।
 

इस कलिकाल में 'श्रीमद्भागवत पुराण' हिन्दू समाज का सर्वाधिक आदरणीय पुराण है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में वेदोंउपनिषदों तथा दर्शन शास्त्र के गूढ़ एवं रहस्यमय विषयों को अत्यन्त सरलता के साथ निरूपित किया गया है। इसे भारतीय धर्म और संस्कृति का विश्वकोश कहना अधिक समीचीन होगा। सैकड़ों वर्षों से यह पुराण हिन्दू समाज की धार्मिक, सामाजिक और लौकिक मर्यादाओं की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता आ रहा हैं।भागवत पुराण में 18000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
श्रीमद्भागवत पुराण- में सकाम कर्म, निष्काम कर्म, ज्ञान साधना, सिद्धि साधना, भक्ति, अनुग्रह, मर्यादा, द्वैत-अद्वैत, द्वैताद्वैत, निर्गुण-सगुण तथा व्यक्त-अव्यक्त रहस्यों का समन्वय उपलब्ध होता है। 'श्रीमद्भागवत पुराण' वर्णन की विशदता और उदात्त काव्य-रमणीयता से ओतप्रोत है। यह विद्या का अक्षय भण्डार है। यह पुराण सभी प्रकार के कल्याण देने वाला तथा त्रय ताप-आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक आदि का शमन करता है। ज्ञान, भक्ति और वैरागय का यह महान् ग्रन्थ है। इस पुराण में बारह स्कन्ध हैं, जिनमें विष्णु के अवतारों का ही वर्णन है।नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों की प्रार्थना पर लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा सूत जी ने इस पुराण के माध्यम से श्रीकृष्ण [ विष्णु ]के चौबीस अवतारों की कथा कही है। 'श्रीमद्भागवत पुराण' में बार-बार श्रीकृष्ण के ईश्वरीय और अलौकिक रूप का ही वर्णन किया गया है। पुराणों के लक्षणों में प्राय: पाँच विषयों का उल्लेख किया गया है, किन्तु इसमें दस विषयों-सर्ग-विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय का वर्णन प्राप्त होता है (दूसरे अध्याय में इन दस लक्षणों का विवेचन किया जा चुका है)। यहाँ श्रीकृष्ण के गुणों का बखान करते हुए कहा गया है कि उनके भक्तों की शरण लेने से किरात् हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आदि तत्कालीन जातियाँ भी पवित्र हो जाती हैं। पुराणों के क्रम में भागवत पुराण पाँचवा स्थान है। पर लोकप्रियता की दृष्टि से यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। वैष्णव 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 हज़ार श्लोकों के इस पुराण को महापुराण मानते हैं। यह भक्तिशाखा का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है और आचार्यों ने इसकी अनेक टीकाएँ की है। कृष्ण-भक्ति का यह आगार है। साथ ही उच्च दार्शनिक विचारों की भी इसमें प्रचुरता है। इस पुराण का पूरा नाम श्रीमद् भागवत पुराण है। सृष्टि-उत्पत्ति के सन्दर्भ में इस पुराण में कहा गया है- एकोऽहम्बहुस्यामि। अर्थात् एक से बहुत होने की इच्छा के फलस्वरूप भगवान स्वयं अपनी माया से अपने स्वरूप में काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लेते हैं। तब काल से तीनों गुणों- सत्व, रज और तम में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा स्वभाव उस क्षोभ को रूपान्तरित कर देता है। तब कर्म गुणों के महत्त्व को जन्म देता है जो क्रमश: अहंकार, आकाशवायु तेजजलपृथ्वीमन, इन्द्रियाँ और सत्व में परिवर्तित हो जाते हैं। इन सभी के परस्पर मिलने से व्यष्टि-समष्टि रूप पिंड और ब्रह्माण्ड की रचना होती है। यह ब्रह्माण्ड रूपी अण्डां एक हज़ार वर्ष तक ऐसे ही पड़ा रहा। फिर भगवान ने उसमें से सहस्त्र मुख और अंगों वाले विराट पुरुष को प्रकट किया। उस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए, विराट पुरुष रूपी नर से उत्पन्न होने के कारण जल को 'नार' कहा गया। यह नार ही बाद में 'नारायण' कहलाया। कुल दस प्रकार की सृष्टियाँ बताई गई हैं। महत्तत्व, अहंकार, तन्मात्र, इन्दियाँ, इन्द्रियों के अधिष्ठाता देव 'मन' और अविद्या- ये छह प्राकृत सृष्टियाँ हैं। इनके अलावा चार विकृत सृष्टियाँ हैं, जिनमें स्थावर वृक्ष, पशु-पक्षी, मनुष्य और देव आते हैं। 
'श्रीमद्भागवत पुराण' में काल गणना भी अत्यधिक सूक्ष्म रूप से की गई है। वस्तु के सूक्ष्मतम स्वरूप को 'परमाणु' कहते हैं। दो परमाणुओं से एक 'अणु' और तीन अणुओं से मिलकर एक 'त्रसरेणु' बनता है। तीन त्रसरेणुओं को पार करने में सूर्य किरणों को जितना समय लगता है, उसे 'त्रुटि' कहते हैं। त्रुटि का सौ गुना 'कालवेध' होता है और तीन कालवेध का एक 'लव' होता है। तीन लव का एक 'निमेष', तीन निमेष का एक 'क्षण' तथा पाँच क्षणों का एक 'काष्टा' होता है। पन्द्रह काष्टा का एक 'लघु', पन्द्रह लघुओं की एक 'नाड़िका' अथवा 'दण्ड' तथा दो नाड़िका या दण्डों का एक 'मुहूर्त' होता है। छह मुहूर्त का एक 'प्रहर' अथवा 'याम' होता है। एक चतुर्युग (सत युगत्रेता युगद्वापर युगकलि युग) में बारह हज़ार दिव्य वर्ष होते हैं। एक दिव्य वर्ष मनुष्यों के तीन सौ साठ वर्ष के बराबर होता है।
युगवर्ष
सत युगचार हज़ार आठ सौ
त्रेता युगतीन हज़ार छह सौ
द्वापर युगदो हज़ार चार सौ
कलि युगएक हज़ार दो सौ

प्रत्येक मनु 7,16,114 चतुर्युगों तक अधिकारी रहता है। ब्रह्मा के एक 'कल्प' में चौदह मनु होते हैं। यह ब्रह्मा की प्रतिदिन की सृष्टि है। सोलह विकारों (प्रकृति, महत्तत्व, अहंकार, पाँच तन्मात्रांए, दो प्रकार की इन्द्रियाँ, मन और पंचभूत) से बना यह ब्रह्माण्डकोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तार वाला है। उसके ऊपर दस-दस आवरण हैं। ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्ड राशियाँ, जिस ब्रह्माण्ड में परमाणु रूप में दिखाई देती हैं, वही परमात्मा का परमधाम है। इस प्रकार पुराणकार ने ईश्वर की महत्ता, काल की महानता और उसकी तुलना में चराचर पदार्थ अथवा जीव की अत्यल्पता का विशद् विवेचन प्रस्तुत किया है। 

इस पुराण के प्रथम स्कंध में उनतीस अध्याय हैं जिनमें शुकदेव जी ईश्वर भक्ति का माहात्म्य सुनाते हैं। भगवान के विविध अवतारों का वर्णन, देवर्षि नारद के पूर्वजन्मों का चित्रण, राजा परीक्षित के जन्म, कर्म और मोक्ष की कथाअश्वत्थामा का निन्दनीय कृत्य और उसकी पराजय, भीष्म पितामह का प्राणत्याग, श्रीकृष्ण का द्वारका गमन, विदुर के उपदेश, धृतराष्ट्रगान्धारी तथा कुन्ती की तन गमन एवं पाण्डवों का स्वर्गारोहण के लिए हिमालय में जाना आदि घटनाओं का क्रमवार कथानक के रूप में वर्णन किया गया है।द्वितीय स्कंध का प्रारम्भ भगवान के विराट स्वरूप वर्णन से होता है। इसके बाद विभिन्न देवताओं की उपासना, गीता का उपदेश, श्रीकृष्ण की महिमा और 'कृष्णार्पणमस्तु' की भावना से की गई भक्ति का उल्लेख है। इसमें बताया गया है कि सभी जीवात्माओं में 'आत्मा' स्वरूप कृष्ण ही विराजमान हैं। पुराणों के दस लक्षणों और सृष्टि-उत्पत्ति का उल्लेख भी इस स्कंध में मिलता है। तृतीय स्कंध उद्धव और विदुर जी की भेंट के साथ प्रारम्भ होता है। इसमें उद्धव जी श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं तथा अन्य लीला चरित्रों का उल्लेख करते हैं। इसके अलावा विदुर और मैत्रेय ऋषि की भेंट, सृष्टि क्रम का उल्लेख, ब्रह्मा की उत्पत्ति, काल विभाजन का वर्णन,  सृष्टि-विस्तार का वर्णन, वराह अवतार की कथा, दिति के आग्रह पर ऋषि कश्यप द्वारा असमय दिति से सहवास एवं दो अमंगलकारी राक्षस पुत्रों के जन्म का शाप देना जय-विजय का सनत्कुमार द्वारा शापित होकर विष्णुलोक से गिरना और दिति के गर्भ से 'हिरण्याक्ष' एवं 'हिरण्यकशिपु' के रूप में जन्म लेना, प्रह्लाद की भक्ति, वराह अवतार द्वारा हिरण्याक्ष और नृसिंह अवतार द्वारा हिरण्यकशिपु का वध, कर्दम-देवहूति का विवाह, सांख्य शास्त्र का उपदेश तथा कपिल मुनि के रूप में भगवान का अवतार आदि का वर्णन इस स्कंध में किया गया है। चतुर्थ स्कंध इस स्कंध की प्रसिद्धि 'पुरंजनोपाख्यान' के कारण बहुत अधिक है। इसमें पुरंजन नामक राजा और भारतखण्ड की एक सुन्दरी का रूपक दिया गया है। इस कथा में पुरंजन भोग-विलास की इच्छा से नवद्वार वाली नगरी में प्रवेश करता है। वहाँ वह यवनों और गंधर्वों के आक्रमण से माना जाता है। रूपक यह है कि नवद्वार वाली नगरी यह शरीर है। युवावस्था में जीव इसमें स्वच्छंद रूप से विहार करता है। लेकिन कालकन्या रूपी वृद्धावस्था के आक्रमण से उसकी शक्ति नष्ट हो जाती है और अन्त में उसमें आग लगा दी जाती है। रूपक को स्पष्ट करते हुए नारद जी कहते हैं- "पुरंजन देहधारी जीव है और नौ द्वार वाला नगर यह मानव देह है (नौ द्वार- दो आँखें, दो कान, दो नासिका छिद्र, एक मुख, एक गुदा, एक लिंग)। अविद्या तथा अज्ञान की माया रूपी वह सुन्दरी है। उसके दास सेवक दस इन्द्रियाँ हैं। इस नगर की रक्षा पंचमुखी सर्प  करते हैं। ग्यारह सेनापति, पाप और पुण्य के दो पहिए, तीन गुणों वाली रथ की ध्वजा, त्वचा आदि सात धातुओं का आवरण तथा इन्द्रियों द्वारा भोग शिकार का प्रतीक है। काल की प्रबल गति एवं वेग ही शत्रु गंधर्व चण्डवेग है। उसके तीन सौ साठ गंधर्व सैनिक वर्ष के तीन सौ साठ दिन एवं रात्रि हैं, जो शनै:-शनै: आयु का हरण करते हैं। पाँच प्राण वाला मनुष्य रात-दिन उनसे युद्ध करता रहता है और हारता रहता है। काल भयग्रस्त जीव को ज्वर अथवा व्याधि से नष्ट कर देता है। इस रूपक का भाव यही है कि मनुष्य अपनी इन्द्रियों के उपभोग से निरन्तर भोग-विलास में पड़कर अपने शरीर का क्षय करता रहता है। वृद्धावस्था आने पर शक्ति क्षीण होकर अनेक रोगों से ग्रस्त एवं नष्ट हो जाता है। परिजन उसके पार्थिव शरीर को आग की भेंट चढ़ा देते हैं। पंचम स्कंध में प्रियव्रत, अग्नीध्र, राजा नाभि, ऋषभदेव तथा भरत आदि राजाओं के चरित्रों का वर्णन है। यह भरत जड़ भरत है, शकुन्तला पुत्र नहीं। भरत का मृग मोह में मृग योनि में जन्म, फिर गण्डक नदी के प्रताप से ब्राह्मण कुल में जन्म तथा सिंधु सौवीर नरेश से आध्यात्मिक संवाद आदि का उल्लेख है। इसके पश्चात् पुरंजनोपाख्यान की भाँति रूपक द्वारा प्राणियों के संसार रूपी मार्ग का सुन्दर वर्णन किया गया है। इसके बाद भरत वंश तथा भुवन कोश का वर्णन है। तदुपरान्त गंगावतरण की कथा, भारत का भौगोलिक वर्णन तथा भगवान विष्णु का स्मरण शिशुमार नामक ज्योतिष चक्र द्वारा करने की विधि बताई गई है। अंत में विभिन्न प्रकार के रौरव नरकों का वर्णन यहाँ किया गया है। षष्ठ स्कंध में नारायण कवच और पुंसवन व्रत विधि का वर्णन जनोपयोगी दृष्टि से किया गया है। पुंसवन व्रत करने से पुत्र की प्राप्ति होती है। व्याधियों, रोगों तथा ग्रहों के दुष्प्रभावों से मनुष्य की रक्षा होती है। एकादशी एवं द्वादशी के दिन इसे अवश्य करना चाहिए। इस स्कंध का प्रारम्भ कान्यकुब्ज के निवासी अजामिल उजामिल उपाख्यान से होता है। अपनी मृत्यु के समय अजामिल अपने पुत्र 'नारायण' को पुकारता है। उसकी पुकार पर भगवान विष्णु के दूत आते हैं और उसे परमलोक ले जाते हैं। भागवत धर्म की महिमा बताते हुए विष्णु-दूत कहते हैं कि चोर, शराबी, मित्र-द्रोही, ब्रह्मघाती, गुरु-पत्नीगामी और चाहे कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, यदि वह भगवान विष्णु के नाम का स्मरण करता है तो उसके कोटि-कोटि जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। किन्तु इस कथन में अतिशयोक्ति दिखाई देती है। परस्त्रीगामी और गुरु की पत्नी के साथ समागम करने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता। यह तो जघन्य पाप है। ऐसा व्यक्ति रौरव नरक में ही गिरता है। इसी स्कंध में दक्ष प्रजापति के वंश का भी वर्णन प्राप्त होता है। नारायण कवच के प्रयोग से इन्द्र को शत्रु पर भारी विजय प्राप्त होती है। इस कवच का प्रभाव मृत्यु के पश्चात् भी रहता है। इसमें वत्रासुर राक्षस द्वारा देवताओं की पराजयस, दधीचि ऋषि की अस्थियों से वज्र निर्माण तथा वत्रासुर के वध की कथा भी दी गई है। सप्तम स्कंध में भक्तराज प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु की कथा विस्तारपूर्वक है। इसके अतिरिक्त मानव धर्म, वर्ण धर्म और स्त्री धर्म का विस्तृत विवेचन है। भक्त प्रह्लाद के कथानक के माध्यम से धर्म, त्याग, भक्ति तथा निस्पृहता आदि की चर्चा की गई है। अष्टम स्कंध में ग्राह द्वारा गजेन्द्र के पकड़े जाने पर विष्णु द्वारा गजेन्द्र उद्धार की कथा का रोचक वृत्तान्त है। इसी स्कन्ध में समुद्र मन्थन और मोहिनी रूप में विष्णु द्वारा अमृत बांटने की कथा भी है। देवासुर संग्राम और भगवान के 'वामन अवतार' की कथा भी इस स्कंध में है। अन्त में 'मत्स्यावतार' की कथा यह स्कंध समाप्त हो जाता है। नवम स्कंध पुराणों के एक लक्षण 'वंशानुचरित' के अनुसार, इस स्कंध में मनु एवं उनके पाँच पुत्रों के वंश-इक्ष्वाकु वंशनिमि वंशचंद्र वंश, विश्वामित्र वंश तथा पुरू वंशभरत वंशमगध वंशअनु वंशद्रह्यु वंशतुर्वसु वंश और यदु वंश आदि का वर्णन प्राप्त होता है। रामसीता आदि का भी विस्तार से विश्लेषण किया गया है। उनके आदर्शों की व्याख्या भी की गई है। दशम स्कंध दो खण्डों- 'पूर्वार्द्ध' और 'उत्तरार्ध' में विभाजित है। इस स्कंध में श्रीकृष्ण चरित्र विस्तारपूर्वक है। प्रसिद्ध 'रास पंचाध्यायी' भी इसमें प्राप्त होती है। 'पूर्वार्द्ध' के अध्यायों में श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर अक्रूर जी के हस्तिनापुर जाने तक की कथा है। 'उत्तरार्ध' में जरासंध से युद्ध, द्वारकापुरी का निर्माण, रुक्मिणी हरण, श्रीकृष्ण का गृहस्थ धर्म, शिशुपाल वध आदि का वर्णन है। यह स्कंध पूरी तरह से श्रीकृष्ण लीला से भरपूर है। इसका प्रारम्भ वसुदेव देवकी के विवाह से प्रारम्भ होता है। भविष्यवाणी, कंस द्वारा देवकी के बालकों की हत्या, कृष्ण का जन्म, कृष्ण की बाल लीलाएं, गोपालन, कंस वध, अक्रूर जी की हस्तिनापुर यात्रा, जरासंध से युद्ध, द्वारका पलायन, द्वारका नगरी का निर्माण, रुक्मिणी से विवाह, प्रद्युम्न का जन्म, शम्बासुर वध, स्यमंतक मणि की कथाजांबवती और सत्यभामा से कृष्ण का विवाह, उषा-अनिरुद्ध का प्रेम प्रसंग, बाणासुर के साथ युद्ध तथा राजा नृग की कथा आदि के प्रसंग आते हैं। इसी स्कंध में कृष्ण-सुदामा की मैत्री की कथा भी दी गई है। एकादश स्कंध में राजा जनक और नौ योगियों के संवाद द्वारा भगवान के भक्तों के लक्षण गिनाए गए हैं। ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेय महाराज यदु को उपदेश देते हुए कहते हैं कि पृथ्वी से धैर्य, वायु से संतोष और निर्लिप्तता, आकाश से अपरिछिन्नता, जल से शुद्धता, अग्नि से निर्लिप्तता एवं माया, चन्द्रमा से क्षण-भंगुरता, सूर्य से ज्ञान ग्राहकता तथा त्याग की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। आगे उद्धव को शिक्षा देते हुए अठ्ठारह प्रकार की सिद्धियों का वर्णन किया गया है। इसके बाद ईश्वर की विभूतियों का उल्लेख करते हुए वर्णाश्रम धर्म, ज्ञान योग, कर्मयोग और भक्तियोग का वर्णन है। द्वादश स्कंध में राजा परीक्षित के बाद के राजवंशों का वर्णन भविष्यकाल में किया गया है। इसका सार यह है कि 138 वर्ष तक राजा प्रद्योतन, फिर शिशुनाग वंश के दास राजा, मौर्य वंश के दस राजा 136 वर्ष तक, शुंग वंश के दस राजा 112 वर्ष तक, कण्व वंश के चार राजा 345 वर्ष तक, फिर आन्ध्र वंश के तीस राजा 456 वर्ष तक राज्य करेंगे। इसके बाद आमीर, गर्दभी, कड, यवन, तुर्क, गुरुण्ड और मौन राजाओं का राज्य होगा। मौन राजा 300 वर्ष तक और शेष राजा एक हज़ार निन्यानवे वर्ष तक राज्य करेंगे। इसके बाद वाल्हीक वंश और शूद्रों तथा म्लेच्छों का राज्य हो जाएगा। धार्मिक और आध्यात्मिक कृति के अलावा शुद्ध साहित्यिक एवं ऐतिहासिक कृति के रूप में भी यह पुराण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।  


'नारद पुराण'-महर्षि नारद जी भगवान विष्णु के परम भक्त रहे हैं। ब्रह्माजी के 17 मानस पुत्रों में से एक नारद मुनि को ज्ञान और बुद्धि के कारण सभी देवता असुर और ऋषि इनका सम्मान करते थे। अपने ज्ञान के बल पर उन्होंने एक पुराण की रचना की, जिसे आज नारद पुराण के नाम से जाना जाता है। इस पुराण में उन्होंने बताया है कि कलियुग आने पर पाप इतना बढ़ जाएगा कि इस पृष्वी का संतुलन खराब हो जाएगा। इंसान, इंसान का ही दुश्मन होने लग जाएगा और वह दूसरों के साथ तो क्या बल्कि अपनो के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार करेगा। - कलियुग आने पर श्रेष्ठ और ईमानदार मनुष्य का लोग उपहास करेंगे और उनमें दोष निकाला जाएगा। धर्म की बजाए लोग अधर्म को बढ़ावा देंगे। लोग अपने धर्म के प्रति शून्य हो जाएंगे।  घोर कलियुग के आने पर लोग अपनों का तो क्या बल्कि अपने गुरुओं का भी सम्मान नहीं करेंगे। पैसा कमाने के लिए लोग किसी भी हद तक जाएंगे। आम लोगों के बीच शिक्षा और सदाचार का महत्व कम हो जाएगा। नारद पुराण के अनुसार कलियुग में कृषि का नाश होगा और किसीन दिन-रात दुखी होंगे। प्रकृति के साथ लगातार छेड़छाड़ होने पर अनाज का अंत हो जाएगा। लोग कृषि छोड़कर अन्य साधनों से की ओर पलायन करेंगे, लेकिन फिर भी उनके हाथ कुछ नहीं लगेगा। कलियुग में लोग बिना स्नान-शौच किए ही सुबह-सुबह बिना प्रभु का नाम लिए, पूजा-पाठ किए बिना ही भोजन करेंगे। लोगों को केवल अपना पेट भरने से मतलब रहेगा और लोग मास-मछली का सेवन अधिक करेंगे। महिलाएं बेहद कड़वा बोलने लगेंगी और उनके चरित्र में नकारात्मकता घर चुकी होगी। महिलाओं के ऊपर न तो पिता का और न ही पति का जोर होगा। औरतें अपने मन की करेंगी वह किसी की नहीं सुनेगी। मनुष्य साधुओं तथा ब्राह्मणों की निंदा में तत्पर रहेंगे। मनुष्यों में पाखंड की प्रचुरता और अधर्म की वृद्धि हो जाने से आयु कम हो जाएगी। कलियुग में पाप लगातार बढ़ता जाएगा। अनुचित कार्य करने में लोगों को लाज और भय नहीं होगा। लोग व्यर्थ के वाद-विवाद में फंसकर धर्म का आचरण छोड़ बैठेंगे। लोगों का धर्म से विश्वास उठ जाएगा।  

'नारद पुराण' एक वैष्णव पुराण है। इस पुराण के विषय में कहा जाता है कि इसका श्रवण करने से पापी व्यक्ति भी पाप मुक्त हो जाते हैं। पापियों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति ब्रह्महत्या का दोषी है, मदिरापान करता है, मांस भक्षण करता है,वेश्यागमन करता हे, लहसुन-प्याज खाता है तथा चोरी करता है; वह पापी है। इस पुराण का प्रतिपाद्य विषय 'विष्णु भक्ति' है। नारद जी विष्णु के परम भक्त हैं। नारद पुराण में 25000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है । इस समय 18,110 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र ही उपलब्ध हैं। 

'नारद पुराण' के प्रारम्भ में ऋषिगण सूत जी से पांच प्रश्न पूछते हैं-

  • भगवान विष्णु को प्रसन्न करने का सरल उपाय क्या है?
  • मनुष्यों को मोक्ष किस प्रकार प्राप्त हो सकता है?
  • भगवान के भक्तों का स्वरूप कैसा हो और भक्ति से क्या लाभ है?
  • अतिथियों का स्वागत-सत्कार कैसे करें?
  • वर्णों और आश्रमों का वास्तविक स्वरूप क्या है?

सूत जी ने उपर्युक्त प्रश्नों का सीधा उत्तर नहीं दिया। अपितु सनत्कुमारों के माध्यम से बताया कि भगवान विष्णु ने अपने दक्षिण भाग से ब्रह्मा और वाम भाग से शिव को प्रकट किया था। लक्ष्मीउमासरस्वती देवी और दुर्गा आदि विष्णु की ही शक्तियां हैं। श्री विष्णु जी को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम साधन श्रद्धा, भक्ति और सदाचरण का पालन करना है। जो भक्त निष्काम भाव से ईश्वर की भक्ति करता है और अपनी समस्त इन्द्रियों को मन द्वारा संयमित रखता है; वही ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर सकता है। यदि ऐसा भक्ति से ईश्वर का संयोग प्राप्त हो जाए तो उससे बड़ा लाभ और क्या हो सकता है? भारत में अतिथि को देवता के समान माना गया है। अतिथि का स्वागत देवार्चन समझकर ही करना चाहिएं वर्णों और आश्रमों का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए यह पुराण ब्राह्मण को चारों वर्णों में सर्वश्रेष्ठ मानता है। आश्रम व्यवस्था के अंतर्गत ब्रह्मचर्य का कठोरता से पालन करने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वालों को अन्य तीनों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्न्यास) में विचरण करने वालों का ध्यान रखने की बात कही गई है। इस प्रकार वर्णाश्रम व्यवस्था में यह पुराण ब्राह्मणों का ही सर्वाधिक पक्ष लेता दिखाई पड़ता है। क्षत्रिय और वैश्यों के प्रति इसका स्वार्थी दृष्टिकोण है जबकि शूद्रों के प्रति कठोरता का व्यवहार प्रतिपादित है। 'नारद पुराण' में गंगावतरण का प्रसंग और गंगा के किनारे स्थित तीर्थों का महत्त्व विस्तार से वर्णित किया गया है। सूर्यवंशी राजा बाहु का पुत्र सगर था। विमाता द्वारा विष दिए जाने पर ही उसका नाम 'सगर' पड़ा था। सगर द्वारा शक और यवन जातियों से युद्ध का वर्णन भी इस पुराण में मिलता है। सगर वंश में ही भगीरथ हुए थे। उनके प्रयास से गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर आई थीं। इसीलिए गंगा को 'भागीरथी' भी कहते हैं।अट्ठारह पुराणों में नारद पुराण का क्रम छठवां है। इस पुराण में 25000 श्लोक थे जिनमें से इस समय 18,110 श्लोक ही उपलब्ध हैं, बाक़ी के श्लोक लुप्त हैं। इस पुराण में व्रत महातम्य, तीर्थ महातम्य के विषय में विशेष निरूपण है। 12वीं सदी के आसपास का यह पुराण है। शंकर वेदांत का प्रभाव इसमें स्पष्ट दिखाई देता है। 'नारद पुराण' को दो भागों में विभक्त किया गया है- पूर्व भाग और उत्तर भाग। पहले भाग में एक सौ पच्चीस अध्याय और दूसरे भाग में बयासी अध्याय सम्मिलित हैं। यह पुराण इस दृष्टि से काफ़ी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें अठारह पुराणों की अनुक्रमणिका दी गई है। पूर्व भाग में ज्ञान के विविध सोपानों का सांगोपांग वर्णन प्राप्त होता है। ऐतिहासिक गाथाएं, गोपनीय धार्मिक अनुष्ठान, धर्म का स्वरूप, भक्ति का महत्त्व दर्शाने वाली विचित्र और विलक्षण कथाएं, व्याकरण, निरूक्त, ज्योतिष, मन्त्र विज्ञान, बारह महीनों की व्रत-तिथियों के साथ जुड़ी कथाएं, एकादशी व्रत माहात्म्य, गंगा माहात्म्य तथा ब्रह्मा के मानस पुत्रों-सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार आदि का नारद से संवाद का विस्तृत, अलौकिक और महत्त्वपूर्ण आख्यान इसमें प्राप्त होता है। अठारह पुराणों की सूची और उनके मन्त्रों की संख्या का उल्लेख भी इस भाग में संकलित है। उत्तर भाग में महर्षि वसिष्ठ और ऋषि मान्धाता की व्याख्या प्राप्त होती है। यहाँ वेदों के छह अंगों का विश्लेषण है। ये अंग हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छंद और ज्योतिष। शिक्षा - शिक्षा के अंतर्गत मुख्य रूप से स्वर, वर्ण आदि के उच्चारण की विधि का विवेचन है। मन्त्रों की तान, राग, स्वर, ग्राम और मूर्च्छता आदि के लक्षण, मन्त्रों के ऋषि, छंद एवं देवताओं का परिचय तथा गणेश पूजा का विधान इसमें बताया जाता है। कल्प - कल्प में हवन एवं यज्ञादि अनुष्ठानों के सम्बंध में चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त चौदह मन्वन्तर का एक काल या 4,32,00,00,000 वर्ष होते हैं। यह ब्रह्मा का एक दिन कहलाता है। अर्थात् काल गणना का उल्लेख तथा विवेचन भी किया जाता है। 


श्री मार्कण्डेय पुराण में श्री दुर्गासप्तशती में किसी भी बीमारी या महामारी का उपाय देवी के स्तुति या मंत्र द्वारा बताया गया है सबसे पहले रोग नाशक मंत्र बताते हैं।
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥ 

महामारी के नाश हेतु-ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।

इसके अलावा भगवान शिव के बेहद कल्याणकारी और मृत्यु को टालने तक में सक्षम महामृत्युंजय मंत्र -ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌॥

 नियमित तौर पर इन मंत्रों का जाप करना बहुत ही लाभदायी होता है । इस टोटके को करने से बड़े से बड़ा शत्रु का डर हमेशा के लिए खत्म हो जाता है। इस उपाय को करने से उपायकर्ता और उसके आसपास एक रक्षाकवच बन जाता है, जो उसके सभी भय को खत्म कर देता है। सबसे पहले उपाय की सामग्री जान लीजिए। सरसों का तेल, नौ मिट्टी के दीपक, देशी कपूर, 9 लौंग, राई दाने, एक चुटकी आजवाईन और लाल धागा यानि कलावा-सभी 9 दीपकों में सरसों का तेल भरकर लाल धागे की बत्ती भी लगा दें, इसके बाद सभी दीपकों में थोड़ा-थोड़ा देशी कपूर डालें। सभी दीपकों में एक-एक लौंग भी डाल दें। चार-चार राई के दानें भी सभी दीपकों में छोड़ दें।अब इस मंत्र- “ॐ हुं हुं हुं हनुमते नमः” का उच्चारण करते हुए एक-एक करके सभी नौ दीपकों को जलाएं। इन दीपकों में से सबसे पहले दो दीपक अपने घर के मुख्य दरवाजे पर रख दें। एक दीपक तुलसी में, एक रसोईघर में, एक घर के बीचों-बीच एवं बचे हुए 4 दीपकों को अपने घर की छत के चारों कोनों पर रख दें। ऐसा करने से, प्राण घातक महामारी से एवं शत्रुओं से रक्षा होगी,,उपरोक्त विधि से उपाय करने के बाद एक लोटे में थोड़ा सा गंगाजल डालकर उसमें शुद्धजल मिलाकर महामृत्युंजय मंत्र का उच्चारण करते हुए सबसे पहले घर के आंगन में एवं फिर पूरे घर में उक्त जल का छिड़काव करें। ऐसा करने से बीमारी फैलाने वाले सुक्ष्म से सुक्ष्म कीटाणु भी घर में प्रवेश नहीं कर पाएंगे।


'मार्कण्डेय पुराण' आकार में छोटा है। इसके एक सौ सैंतीस अध्यायों में लगभग नौ हज़ार श्लोक हैं। मार्कण्डेय ऋषि द्वारा इसके कथन से इसका नाम 'मार्कण्डेय पुराण' पड़ा। यह पुराण वस्तुत: दुर्गा चरित्र एवं दुर्गा सप्तशती के वर्णन के लिए प्रसिद्ध है। इसीलिए इसे शाक्त सम्प्रदाय का पुराण कहा जाता है। पुराण के सभी लक्षणों को यह अपने भीतर समेटे हुए है। इसमें ऋषि ने मानव कल्याण हेतु सभी तरह के नैतिक, सामाजिक आध्यात्मिक और भौतिक विषयों का प्रतिपादन किया है। इस पुराण में भारतवर्ष का विस्तृत स्वरूप उसके प्राकृतिक वैभव और सौन्दर्य के साथ प्रकट किया गया है।

इस पुराण में धनोपार्जन के उपायों का वर्णन 'पद्मिनी विद्या' द्वारा प्रस्तुत है। साथ ही राष्ट्रहित में धन-त्याग की प्रेरणा भी दी गई है। आयुर्वेद के सिद्धान्तों के अनुसार शरीर-विज्ञान का सुन्दर विवेचन भी इसमें है। 'मन्त्र विद्या' के प्रसंग में पत्नी को वश में करने के उपाय भी बताए गए हैं। 'गृहस्थ-धर्म' की उपयोगिता, पितरों और अतिथियों के प्रति कर्त्तव्यों का निर्वाह, विवाह के नियमों का विवेचन, स्वस्थ एवं सभ्य नागरिक बनने के उपाय, सदाचार का महत्त्व, सत्संग की महिमा, कर्त्तव्य परायणता, त्याग तथा पुरुषार्थ पर विशेष महत्त्व इस पुराण में दिया गया है। 'मार्कण्डेय पुराण' में सन्न्यास के बजाय गृहस्थ जीवन में निष्काम कर्म पर विशेष बल दिया गया है। मनुष्यों को सन्मार्ग पर चलाने के लिए नरक का भय और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों का सहारा लिया गया है। करुणा से प्रेरित कर्म को पूजा-पाठ और जप-तप से श्रेष्ठ बताया गया है। ईश्वर प्राप्ति के लिए अपने भीतर ओंकार (ॐ) की साधना पर ज़ोर दिया गया है। यद्यपि इस पुराण में 'योग साधना' और उससे प्राप्त होने वाली अष्ट सिद्धियों का भी वर्णन किया गया है, किन्तु 'मोक्ष' के लिए आत्मत्याग और आत्मदर्शन को आवश्यक माना गया है। संयम द्वारा इन्द्रियों को वश में करने की अनिवार्यता बताई गई है। विविध कथाओं और उपाख्यानों द्वारा तप का महत्त्व भी प्रतिपादित किया गया है। इस पुराण में किसी देवी-देवता को अलग से विशेष महत्त्व नहीं दिया गया है। ब्रह्माविष्णुमहेशसूर्यअग्निदुर्गा, सरस्वती आदि सभी का समान रूप से आदर किया गया है। सूर्य की स्तुति करते हुए वैदिकों की पराविद्या, ब्रह्मवादियों की शाश्वत ज्योति, जैनियों का कैवल्य, बौद्धों की बोधावगति, सांख्यों का दर्शन ज्ञान, योगियों का प्राकाम्य, धर्मशास्त्रियों की स्मृति और योगाचार का विज्ञान आदि सभी को सूर्य भगवान के विभिन्न रूपों में स्वीकार किया गया है। 'मार्कण्डेय पुराण' में मदालसा के कथानक द्वारा जहां ब्राह्मण धर्म का उल्लेख किया गया है, वहीं अनेक राजाओं के आख्यानों द्वारा क्षत्रिय राजाओं के साहस, कर्त्तव्य परायणता तथा राजधर्म का सुन्दर विवेचन भी दिया गया है। पुराणकार कहता है कि जो राजा प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता, वह नरकगामी होता है। मद्यपान के दोषों को बलराम के प्रसंग द्वारा और क्रोध तथा अहंकार के दुष्परिणामों पर वसिष्ठ एवं विश्वामित्र के कथानकों द्वारा प्रकाश डाला गया है। विस्तृत व्याख्या की दृष्टि से इस पुराण के पांच भाग किए जा सकते हैं-

  • पहला भाग- पहले भाग में जैमिनी ऋषि को महाभारत के सम्बन्ध में चार शंकाएं हैं, जिनका समाधान विन्ध्याचल पर्वत पर रहने वाले धर्म पक्षी करते हैं।
  • दूसरा भाग- दूसरे भाग में जड़ सुमति के माध्यम से धर्म पक्षी सर्ग प्रतिसर्ग अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति, प्राणियों के जन्म और उनके विकास का वर्णन है।
  • तीसरा भाग- तीसरे भाग में ऋषि मार्कण्डेय अपने शिष्य क्रोष्टुकि को पुराण के मूल प्रतिपाद्य विषय- सूर्योपासना और सूर्य द्वारा समस्त सृष्टि के जन्म की कथा बताते हैं।
  • चौथा भाग- चौथे भाग में 'देवी भागवत पुराण' म् वर्णित 'दुर्गा चरित्र' और 'दुर्गा सप्तशती' की कथा का विस्तार से वर्णन है।
  • पांचवां भाग- पांचवें भाग में वंशानुचरित के आधार पर कुछ विशेष राजवंशों का उल्लेख है।

 अग्नि पुराण ज्ञान का विशाल भण्डार है। स्वयं अग्निदेव ने इसे महर्षि वसिष्ठ को सुनाते हुए कहा था –

आग्नेये हि पुराणेऽस्मिन् सर्वा विद्याप्रदर्शिता:

अर्थात ‘अग्नि पुराण’ में सभी विद्याओं का वर्णन है। आकार में लघु होते हुए भी विद्याओं के प्रकाशन की दृष्टि से यह पुराणअपना विशिष्ट महत्त्व रखता है। इस पुराण में तीन सौ तिरासी (383) अध्याय हैं। गीता, अध्यात्म रामायण, महाभारत, हरिवंश पुराण आदि का परिचय इस पुराण में है। परा-अपरा विद्याओं का वर्णन भी इसमें प्राप्त होता है। मत्स्य, कूर्म आदि अवतारों की कथाएं भी इसमें दी गई हैं। अग्नि पुराण में 21000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है  

'गीता' , 'रामायण', 'महाभारत', 'हरिवंश पुराण' आदि का परिचय इस पुराण में है। परा-अपरा विद्याओं का वर्णन भी इसमें प्राप्त होता है। मत्स्यकूर्म आदि अवतारों की कथाएं भी इसमें दी गई हैं। सृष्टि-वर्णन, सन्ध्या, स्नान, पूजा विधि, होम विधि, मुद्राओं के लक्षण, दीक्षा और अभिषेक विधि, निर्वाण-दीक्षा के संस्कार, देवालय निर्माण कला, शिलान्यास विधि, देव प्रतिमाओं के लक्षण, लिंग लक्षण तथा विग्रह प्राण-प्रतिष्ठा की विधि, वास्तु पूजा विधि, तत्त्व दीक्षा, खगोल शास्त्र, तीर्थ माहात्म्य, श्राद्ध कल्प, ज्योतिष शास्त्र, संग्राम विजय, वशीकरण विद्या, औषधि ज्ञान, वर्णाश्रम धर्म, मास व्रत, दान माहात्म्य राजधर्म, विविध स्वप्न वर्णन, शकुन-अपशकुन, रत्न परीक्षा, धनुर्वेद शिक्षा, व्यवहार कुशलता, उत्पात शान्ति विधि, अश्व चिकित्सा, सिद्धि मन्त्र, विविध काव्य लक्षण, व्याकरण और रस-अलंकार आदि के लक्षण, योग, ब्रह्मज्ञान, स्वर्ग-नरक वर्णन, अर्थ शास्त्र, न्याय, मीमांसा, सूर्य वंश तथा सोम वंश आदि का वर्णन इस पुराण में किया गया है। 

  • वैष्णवों की पूजा-पद्धति और प्रतिमा आदि के लक्षणों का सांगोपांग वर्णन इस पुराण में वर्णित है। शिव और शक्ति की पूजा का पूरा विधान इसमें बताया गया है। वेदान्त के सभी विषयों को उत्तम रिति से इसमें समझा गया है। इसके अलावा जीवन के लिए उपयोगी सभी विधाओं की जानकारी इस पुराण में मिल जाती है।
  • अग्निदेव के मुख से कहे जाने के कारण ही इस पुराण का नाम 'अग्नि पुराण' पड़ा है। यह एक प्राचीन पुराण है। इसमें शिव, विष्णु और सूर्य की उपासना का वर्णन निष्पक्ष भाव से किया गया है। यही इसकी प्राचीनता को दर्शाता है। क्योंकि बाद में शैव और वैष्णव मतावलम्बियों में काफ़ी विरोध उत्पन्न हो गया था, जिसके कारण उनकी पूजा-अर्चना में उनका वर्चस्व बहुत-चढ़ाकर दिखाया जाने लगा था। एक-दूसरे के मतों की निन्दा की जाने लगी थी जबकि 'अग्नि पुराण' में इस प्रकार की कोई निन्दा उपलब्ध नहीं होती।
  • तीर्थों के वर्णन में शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों मठों- बद्रीनाथजगन्नाथद्वारकापुरी और रामेश्वरम का उल्लेख इसमें नहीं है। इसके अलावा काशी के वर्णन में विश्वनाथ तथा दशाश्वमेघ घाट का वर्णन भी इसमें नहीं हैं यही बात इसकी प्राचीनता को दर्शाती है। विषय-सामग्री की दृष्टि से 'अग्नि पुराण' को भारतीय जीवन का विश्वकोश कहा जा सकता है पुराणों के पांचों लक्षणों- सर्ग, प्रतिसर्ग, राजवंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित आदि का वर्णन भी इस पुराण में प्राप्त होता है। किन्तु इसे यहाँ संक्षेप रूप में दिया गया है। इस पुराण का शेष कलेवर दैनिक जीवन की उपयोगी शिक्षाओं से ओतप्रोत है।
  • 'अग्नि पुराण' में शरीर और आत्मा के स्वरूप को अलग-अलग समझाया गया है। इन्द्रियों को यंत्र मात्र माना गया है और देह के अंगों को 'आत्मा' नहीं माना गया है। पुराणकार' आत्मा' को हृदय में स्थित मानता है। ब्रह्म से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी होती है। इसके बाद सूक्ष्म शरीर और फिर स्थूल शरीर होता है।
  • 'अग्नि पुराण' ज्ञान मार्ग को ही सत्य स्वीकार करता है। उसका कहना है कि ज्ञान से ही 'ब्रह्म की प्राप्ति सम्भव है, कर्मकाण्ड से नहीं। ब्रह्म की परम ज्योति है जो मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से भिन्न है। जरा, मरण, शोक, मोह, भूख-प्यास तथा स्वप्न-सुषुप्ति आदि से रहित है।
  • इस पुराण में 'भगवान' का प्रयोग विष्णु के लिए किया गया है। क्योंकि उसमें 'भ' से भर्त्ता के गुण विद्यमान हैं और 'ग' से गमन अर्थात् प्रगति अथवा सृजनकर्त्ता का बोध होता है। विष्णु को सृष्टि का पालनकर्त्ता और श्रीवृद्धि का देवता माना गया है। 'भग' का पूरा अर्थ ऐश्वर्य, श्री, वीर्य, शक्ति, ज्ञान, वैराग्य और यश होता है जो कि विष्णु में निहित है। 'वान' का प्रयोग प्रत्यय के रूप में हुआ है, जिसका अर्थ धारण करने वाला अथवा चलाने वाला होता है। अर्थात् जो सृजनकर्ता पालन करता हो, श्रीवृद्धि करने वाला हो, यश और ऐश्वर्य देने वाला हो; वह 'भगवान' है। विष्णु में ये सभी गुण विद्यमान हैं।
  • 'अग्नि पुराण' ने मन की गति को ब्रह्म में लीन होना ही 'योग' माना है। जीवन का अन्तिम लक्ष्य आत्मा और परमात्मा का संयोग ही होना चाहिए। इसी प्रकार वर्णाश्रम धर्म की व्याख्या भी इस पुराण में बहुत अच्छी तरह की गई है। ब्रह्मचारी को हिंसा और निन्दा से दूर रहना चाहिए। गृहस्थाश्रम के सहारे ही अन्य तीन आश्रम अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। इसलिए गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों में श्रेष्ठ है। वर्ण की दृष्टि से किसी के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए। वर्ण कर्म से बने हैं, जन्म से नहीं।इस पुराण में देव पूजा में समता की भावना धारण करने पर बल दिया गया है और अपराध का प्रायश्चित्त सच्चे मन से करने पर ज़ोर दिया गया है। स्त्रियों के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाते हुए पुराणकार कहता है-
  • नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ। पंचत्स्वापस्तु नारीणां पतिरन्यों विधीयते ॥ अर्थात् पति के नष्ट हो जाने पर, मर जाने पर, सन्न्यास ग्रहण कर लेने पर, नपुंसक होने पर अथवा पतित होने पर इन पांच अवस्थाओं में स्त्री को दूसरा पति कर लेना चाहिए।
  • इसी प्रकार यदि किसी स्त्री के साथ कोई व्यक्ति बलात्कार कर बैठता है तो उस स्त्री को अगले रजोदर्शन तक त्याज्य मानना चाहिए। रजस्वला हो जाने के उपरान्त वह पुन: शुद्ध हो जाती है। ऐसा मानकर उसे स्वीकार कर लेना चाहिए।
  • राजधर्म की व्याख्या करते हुए पुराणकार कहता है कि राजा को प्रजा की रक्षा उसी प्रकार करनी चाहिए, जिस प्रकार कोई गर्भिणी-स्त्री अपने गर्भ में पल रहे बच्चे की करती है।
  • चिकित्सा शास्त्र की व्याख्या में पुराण कहता है कि समस्त रोग अत्यधिक भोजन ग्रहण करने से होते हैं या बिलकुल भी भोजन न करने से। इसलिए सदैव सन्तुलित आहार लेना चाहिए। अधिकांशत: जड़ी-बूटियों द्वारा ही इसमें रोगों के शमन का उपचार बताया गया है।
  • 'अग्नि पुराण' में भूगोल सम्बन्धी ज्ञान, व्रत-उपवास-तीर्थों का ज्ञान, दान-दक्षिणा आदि का महत्त्व, वास्तु-शास्त्र और ज्योतिष आदि का वर्णन अन्य पुराणों की ही भांति है। वस्तुत: तत्कालीन समाज की आवश्यकताओं के अनुसार ही इसमें नित्य जीवन की उपयोगी जानकारी दी गई है।
  • इस पुराण में व्रतों का काफ़ी विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। व्रतों की सूची तिथि, वार, मास, ऋतु आदि के अनुसार अलग-अलग बनाई गई है। पुराणकार ने व्रतों को जीवन के विकास का पथ माना है। अन्य पुराणों में व्रतों को दान-दक्षिणा का साधना-मात्र मानकर मोह द्वारा उत्पन्न आकांक्षाओं की पूर्ति का माध्यम बताया गया है। लेकिन 'अग्नि पुराण' में व्रतों को जीवन के उत्थान के लिए संकल्प का स्परूप माना गया है। साथ ही व्रत-उपवास के समय जीवन में अत्यन्त सादगी और धार्मिक आचार-विचार का पालन करने पर भी बल दिया गया है।
  • 'अग्नि पुराण' में स्वप्न विचार और शकुन-अपशकुन पर भी विचार किया गया है। पुरुष और स्त्री के लक्षणों की चर्चा इस पुराण का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंश है।
  • सर्पों के बारे में भी विस्तृत जानकारी इस पुराण में उपलब्ध होती है। मन्त्र शक्ति का महत्त्व भी इसमें स्वीकार किया गया है।

भविष्य पुराण में -संस्कारों, समारोह-उत्सव,और भविष्य में घटित होने बाले घटनाएँ / परिवर्तन, जैसे विषयों को शामिल किया गया है। इसमें महिलाओं के कर्तव्य और अधिकार, लोगों के स्वभाव अच्छे और बुरे चरित्रों की पहचान कैसे करें, और जाति से संबंधित चर्चा भी शामिल है।

'भविष्य पुराण'- सूर्योपासना और उसके महत्त्व का जैसा व्यापक वर्णन 'भविष्य पुराण' में प्राप्त होता है। वैसा किसी अन्य पुराण में नहीं उपलब्ध होता। इसलिए इस पुराण को 'सौर ग्रंथ' भी कहते हैं। यह ग्रंथ बहुत अधिक प्राचीन नहीं है। इस पुराण में दो हज़ार वर्ष का अत्यन्त सटीक विवरण प्राप्त होता है। 'भविष्य पुराण' के अनुसार, इसके श्लोकों की संख्या पचास हज़ार के लगभग होनी चाहिए, परन्तु वर्तमान में कुल भविष्य पुराण में 14500 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है इस पुराण को चार खण्डों में विभाजित किया गया है- ब्राह्म पर्व, मध्यम पर्व, प्रतिसर्ग पर्व और उत्तर पर्व। 'भविष्य पुराण' की विषय वस्तु में सूर्य की महिमा, उनके परम तेजस्वी स्वरूप, उनके परिवार, उनकी उपासना पद्धति, विविध व्रत-उपवास, उनको करने की विधि, सामुद्रिक शास्त्र, स्त्री-पुरुष के शारीरिक लक्षण, रत्नों एवं मणियों की परीक्षा का विधान, विभिन्न प्रकार के स्तोत्र, अनेक सप्रकार की औषधियों का वर्णन, वर्प विद्या का विशद् ज्ञान, विविध राजवंशों का उल्लेख, विविध भारतीय संस्कार, तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, शिक्षा-प्रणाली तथा वास्तु शिल्प आदि शामिल हैं जिन पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

भविष्य पुराण में ब्राह्म पर्व में व्यास शिष्य महर्षि सुमंतु एवं राजा शतानीक के संवादों द्वारा इस पुराण का शुभारम्भ होता है। प्रारम्भ में इस पुराण की महिमा, वेदों तथा पुराणों की उत्पत्ति, काल गणना, युगों का विभाजन, गर्भाधान के समय से लेकर यज्ञोपवीत संस्कारों तक की संक्षिप्त विधि, भोजन विधि, दाएं हाथ में स्थित विविध पांच प्रकार के तीर्थों, ओंकार एवं गायत्री जप का महत्त्व, अभिवादन विधि, माता-पिता तथा गुरु की महिमा का वर्णन, विवाह योग्य स्त्रियों के शुभ-अशुभ लक्षण, पंच महायज्ञों, पुरुषों एवं राजपुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षण, व्रत-उपवास पूजा विधि, सूर्योपासना का माहात्म्य और उनसे जुड़ी कथाओं का विवरण प्राप्त होता है। 
  • इस पर्व में दाएं हाथ में स्थित पांच तीर्थों में– देव तीर्थ, पितृ तीर्थ, ब्रह्म तीर्थ, प्रजापत्य तीर्थ और सौम्य तीर्थ बताए गए हैं।
  • देव तीर्थ में ब्राह्मण को दाएं हाथ से दी गई दक्षिणा आदि कर्म आते हैं।
  • पितृ तीर्थ में तर्पण एवं पिण्ड दान आदि कर्मों का उल्लेख मिलता है।
  • ब्रह्म तीर्थ में आचमन आदि कर्म आते हैं।
  • प्रजापत्य तीर्थ में विवाह के समय लग्नहोत्र आदि कर्म आते हैं।
  • सौम्य तीर्थ में देव कार्य के लिए किए गए कर्म, पूजा-अर्चना आदि हैं।

इसी पूर्व में जिन पंच महायज्ञों का उल्लेख किया गया है, वे इस प्रकार हैं-

  1. ब्रह्म यज्ञ,
  2. पितृ यज्ञ,
  3. देव यज्ञ,
  4. भूत यज्ञ तथा
  • अतिथि यज्ञ। ये यज्ञ अपने नामानुसार ही किए जाते हैं। यथा-ब्रह्म मुहूर्त में ईश्वर के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'ब्रह्म यज्ञ', पितरों की सन्तुष्टि और प्रसन्नता के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'पितृ यज्ञ', देवतों की सन्तुष्टि के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'देव यज्ञ', समस्त प्राणियों की सुख-शान्ति के लिए किया जाने वाला यज्ञ 'भूत यज्ञ' और अतिथि की सेवा में रत रहना ही 'अतिथि यज्ञ' कहलाता है। इसी पर्व में स्त्री-पुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षणों के विषय में चर्चा करते हुए ब्रह्मा जी कार्तिकेय से कहते हैं। कि जिस स्त्री की ग्रीवा में रेखाएं हों और नेत्रों के कोरों का कुछ सफ़ेद भाग लाली लिए हो; वह स्त्री जिस घर में जाती है, उस घर की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। जिसके बाएं हाथ, कान या गले पर तिल या मस्सा हो; उसकी पहली सन्तान पुत्र होती है।इस पर्व में मुख्य रूप से यज्ञ कर्मों का शास्त्रीय विवेचन प्राप्त होता है। चार प्रकार के मासों-चन्द्र मास,सौर मास,नक्षत्र मास औरश्रावण मास का वर्णन भी इस पर्व में किया गया है।
  • शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक का मास 'चन्द्र मास',
  • सूर्य द्वारा एक राशि में संक्राति से दूसरी संक्राति में प्रवेश करने का समय 'सौर मास',
  • आश्विन नक्षत्र से रेवती नक्षत्र पर्यन्त 'नक्षत्र मास' और पूरे तीस दिन का या किसी तिथि को लेकर तीस दिन बाद आने वाली तिथि तक का समय 'श्रावण मास' कहलाता है।
  • श्राद्धकर्मपितृकर्म आदि 'चन्द्र मास' में करने चाहिए। 
  • विवाह-संस्कार, यज्ञ, व्रत, स्नान आदि सत्कर्म 'सौर मास' में करने का विधान है।
  • सोम या पितृगण के कार्य 'नक्षत्र मास' में किए जाते हैं।
  • प्रायश्चित्त, अन्नप्राशन, मन्त्रोपासना, राज कर देना, यज्ञ के दिनों की गणना आदि कर्म 'श्रावण मास' में करना चाहिए।
  • सूर्य-चन्द्र की तिथियों के योग से जिस माह में पूर्णिमा का योग न हो और तीस दिनों तक संक्रमण न हो, वह 'मल मास' कहलाता है। इस मास में कोई भी शुभ कर्म नहीं किए जाते। इसी पर्व में सूत जी विभिन्न तिथियों में किए गए कर्म विशेष के फलों का वर्णन भी करते हैं। 
  • शुक्ल पक्ष में द्वितीया तिथि को यदि बृहस्पतिवार हो तो उस दिन अग्नि पूजन करने से ऐश्वर्य और इच्छापूर्ति के अनुसार धन लाभ होता है।
  • आषाढ़ एवं श्रावण मास में मिथुन-कर्क राशि के सूर्य में द्वितीया तिथि को उपवास करके विष्णु पूजन करने से स्त्री जल्दी विधवा नहीं होती। इसी प्रकार अन्य तिथियों में किए गए पूजन से क्या-क्या प्राप्त होते हैं, उनका विस्तार से उल्लेख किया गया है।
  • इसी पर्व में उद्यानों, गोचर भूमियों, जलाशयों, तुलसी और मण्डप आदि की प्रतिष्ठा की शास्त्रीय विधियों का उल्लेख किया गया है। गृहस्थाश्रम की उपयोगिता, सृष्टि, पाताल लोक, भूगोल, ज्योतिष, ब्राह्मणों की महानता, माता-पिता एवं गुरुओं की महिमा, वृक्षारोपण का महत्त्व आदि का विस्तार से वर्णन है। वृक्षारोपण के लिए वैशाखआषाढ़श्रावण तथा भादों मास सर्वश्रेष्ठ और ज्येष्ठआश्विनकार्तिक मास अशुभ एवं विनाशकारी माने जाते हैं। इसी पर्व में दस प्रकार के यज्ञ कुण्डों का वर्णन भी किया गया है।

    प्रतिसर्ग पर्व इतिहास का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत करता है। इसमें आधुनिक घटनाओं का क्रमवार वर्णन है। ईसा मसीह के जन्म, उनकी भारत यात्रा, मुहम्मद साहब का आविर्भाव, महारानी विक्टोरिया का राज्यारोहण, सत युग के राजवंशों का वर्णन, त्रेता युग के सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन , द्वापर युग के चन्द्रवंशी राजाओं का वर्णन, कलि युग में होने वाले म्लेच्छ राजाओं एवं उनकी भाषाओं का वर्णन, नूह की प्रलय गाथा, मगध के राजवंश राजा नन्द, बौद्ध राजाओं तथा चौहान व परमार वंश के राजाओं तक का वर्णन इसमें प्राप्त होता है। राजवंशों से सम्बंधित कई कथाओं के माध्यम से मानव-जीवन के आदर्श मूल्यों के स्थापना की प्रेरणा देने में 'भविष्य पुराण' अग्रणी है। इस पुराण में प्रसिद्ध बेताल कथाओं (विक्रम-बैताल कथाएं) या वेताल पच्चीसी की कथाओं का उल्लेख भी मिलता हैं जीमूतवाहन और शंखचूड़ की प्रसिद्ध कथा भी इस पुराण में उपलब्ध होती है।

    श्री सत्यनारायण व्रत कथा' का उल्लेख इसी पर्व के तेइसवें से उनतीसवें अध्याय में किया गया हें यह कथा हिन्दुओं के सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के लिए अत्यन्त लोकोपकारी, मंगलकारी और पुण्य देने वाली है।इस पर्व में भारत के लगभग एक सहस्त्र वर्ष के इतिहास पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। इस वजह से इस पुराण को वर्तमान भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता का महान् ग्रन्थ कहना अनुचित नहीं होगा। प्रसंगवश इसमें 'मार्कण्डेय पुराण' की भांति 'दुर्गा सप्तशती' के चरित्रों का भी वर्णन प्राप्त होता है।

    उत्तर पर्व में विष्णु-माया से मोहित नारद का वर्णन, चित्रलेखा चरित्र वर्णन, अशोक तथा करवीर व्रत का माहात्म्य गोपनीय कोकिला व्रत का वर्णन (पति-पत्नी में प्रेम की प्रगाढ़ता के लिए) तथा स्त्रियों को सौभाग्य प्रदा करने वाले अन्य व्रतों का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है।

    'भविष्य पुराण' की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसका पारायण और रचना मग ब्राह्मणों द्वारा की गई है। ये मग ब्राह्मण ईरानी पुरोहित थे, जो ईसा की तीसरी शताब्दी में भारत आकर बस गए थे। ये सूर्य के उपासक थे। सूर्य की उपासना वैदिक काल से भारत में होती रही है। मग ब्राह्मणों ने सूर्योपासना के साथ 'खगोल विद्या' और 'ज्योतिष' का प्रचलन किया। ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य वराह मिहिर,खगोल विद्या के ज्ञाता मग ब्राह्मण ही थे। ये मग ब्राह्मण शनै:-शनै: भारतीय जन-जीवन में पूरी तरह से घुल-मिल गए।

  • भविष्य पुराण तत्कालीन समाज-व्यवस्था पर भी अच्छा प्रकाश डालता है। उस काल की जाति-व्यवस्था के बारे में यह पुराण कहता है-'जाति न तो जन्म से होती है, न वंश से और न ही व्यवसाय से, बल्कि कर्म तथा आचरण से होती है।
  • ऐसे अनेक उदाहरण इतिहास में मिल जाएंगे, जो शूद्र कुल में जन्म लेकर भी सत्कर्म के आधार पर पूजनीय बने। स्वयं कृष्ण द्वैपायन व्यास जी महर्षि पराशर और मत्स्य कन्या सत्यवती के संसर्ग से उत्पन्न हुए थे। 'भविष्य पुराण' के अनुसार वर्ण-व्यवस्था ईरान के ब्राह्मणों की देन है। उन्होंने ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियों का कर्मानुसार कार्य विभाजन किया था । यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि ब्राह्मण ज्योतिष विद्या में पारंगत थे। ब्राह्मणों के अतिरिक्त भोजक और अग्नि उपासक भी थे।
  • 'भविष्य पुराण' के अनुसार दक्ष की पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य के साथ हुआ था। उसी से यम और यमुना पैदा हुए। इस पुराण में सूर्य पूजा की विधि विस्तार से बताई गई है। रक्त चन्दन, करवीर पुष्प तथा गुड़ से बनी खाद्य-सामग्री सूर्योपासना में उपयुक्त मानी गई है। सूर्य के अतिरिक्त इस पुराण में गणेश जी की पूजा और स्वर्ग-नरक का विस्तृत वर्णन भी प्राप्त होता है। इसमें बताया गया हे कि जो मनुष्य सुसंस्कृत होते हुए भी दुराचार से लिप्त रहता है, उसे रौरव नरक का दु:ख सहन करना पड़ेगा-चाहे वह ब्राह्मण की क्यों न हो।
  • शिक्षा-प्रणाली के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए 'भविष्य पुराण' कहता है कि केवल पांच प्रकार के गुरु होते हैं।
    1. आचार्य जो वेदों का रहस्य समझाएं।
    2. उपाध्याय जो जीविकोपार्जन हेतु वेद पाठ कराएं।
    3. गुरु या पिता जो अपने शिष्यों और सन्तान को शिक्षित करें तथा उनमें किसी तरह का भेदभाव न करें।
    4. ऋत्विक जो अग्निहोत्र या यज्ञ कराएं।
    5. महागुरु जो गुरुओं का भी गुरु हो; जिसने 'वेद', 'पुराण', 'रामायण' और 'महाभारत' की पूरी तरह अध्ययन किया हो तथा सूर्यशिवविष्णु आदि की उपासना विधियों का पूरा ज्ञान रखता हो।
    6. 'भविष्य पुराण' में व्रतों और उपवासों के विस्तृत वर्णन के साथ-साथ मन्दिर निर्माण की प्रक्रिया का भी विस्तार से उल्लेख है। मन्दिरों के निर्माण में स्थापत्य कला का विशद वर्णन भी इस पुराण में प्राप्त होता है। सूर्य मन्दिर में सूर्य प्रतिमाओं के बारे में भी विस्तार से बताया गया है।
    7. समाज की आर्थिक स्थिति के बारे में 'भविष्य पुराण' में अधिक जानकारी नहीं उपलब्ध होती। केवल कुछ प्रकार की मज़दूरी का उल्लेख प्राप्त होता है। यदि पहले से मज़दूरी तय न हो तो कुल किए गए काम का हिसाब लगाकर मज़दूरी देनी चाहिए। साधारण तौर पर उस काल में मज़दूरी 'पण' के रूप में दी जाती थी। बीस कौड़ी की एक काकिणी और चार काकिणी का एक पण होता था।

ब्रह्मवैवर्त पुराण एक वैष्णव पुराण है, इस पुराण में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन, श्रीराधा की गोलोक-लीला तथा अवतार-लीलाका सुन्दर विवेचन, विभिन्न देवताओं की महिमा एवं एकरूपता और उनकी साधना-उपासनाका सुन्दर निरूपण किया गया है

'ब्रह्मवैवर्त' । इस पुराण में श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताया गया है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ है- ब्रह्म का विवर्त अर्थात् ब्रह्म की रूपान्तर राशि। ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है। विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है।  ब्रह्मवर्त पुराण में 18000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।

कृष्ण से ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश और प्रकृति का जन्म बताया गया है। उनके दाएं पार्श्व से त्रिगुण (सत्व, रज, तम) उत्पन्न होते हैं। फिर उनसे महत्तत्व, अहंकार और पंच तन्मात्र उत्पन्न हुए। फिर नारायण का जन्म हुआ जो श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी और वनमाला धारण किए चार भुजाओं वाले थे। पंचमुखी शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व से हुआ। नाभि से ब्रह्मा, वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन: लक्ष्मी, मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गासावित्रीकामदेवरतिअग्निवरुणवायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ। ये सभी भगवान के 'गोलोक' में स्थित हो गए।

शिव पुराण सभी पुराणों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली पुराणों में से एक है। भगवान शिव के विविध रूपों, अवतारों, ज्योतिर्लिंगों, भक्तों और भक्ति का विशद् वर्णन किया गया है। इसमें शिव के कल्याणकारी स्वरूप का तात्त्विक विवेचन, रहस्य, महिमा और उपासना का विस्तृत वर्णन है । शिव पुराण में शिव को पंचदेवों में प्रधान अनादि सिद्ध परमेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। शिव-महिमा, लीला-कथाओं के अतिरिक्त इसमें पूजा-पद्धति, अनेक ज्ञानप्रद आख्यान और शिक्षाप्रद कथाओं का सुन्दर संयोजन है। इसमें भगवान शिव के भव्यतम व्यक्तित्व का गुणगान किया गया है। शिव- जो स्वयंभू हैं, शाश्वत हैं, सर्वोच्च सत्ता है, विश्व चेतना हैं और ब्रह्माण्डीय अस्तित्व के आधार हैं।

'शिव पुराण' का सम्बन्ध शैव मत से है। इस पुराण में प्रमुख रूप से शिव-भक्ति और शिव-महिमा का प्रचार-प्रसार किया गया है। प्रायः सभी पुराणों में शिव को त्याग, तपस्या, वात्सल्य तथा करुणा की मूर्ति बताया गया है। कहा गया है कि शिव सहज ही प्रसन्न हो जाने वाले एवं मनोवांछित फल देने वाले हैं। किन्तु 'शिव पुराण' में शिव के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालते हुए उनके रहन-सहन, विवाह और उनके पुत्रों की उत्पत्ति के विषय में विशेष रूप से बताया गया है। इस पुराण में २४,००० श्लोक है तथा इसके क्रमश: ६ खण्ड है।

  • विद्येश्वर संहिता
  • रुद्र संहिता
  • कोटिरुद्र संहिता
  • कैलास संहिता
  • वायु संहिता
  • ‘शिवपुराण’ एक प्रमुख तथा सुप्रसिद्ध पुराण है, जिसमें परात्मपर परब्रह्म परमेश्वर के ‘शिव’ (कल्याणकारी) स्वरूप का तात्त्विक विवेचन, रहस्य, महिमा एवं उपासना का सुविस्तृत वर्णन है। भगवान शिवमात्र पौराणिक देवता ही नहीं, अपितु वे पंचदेवों में प्रधान, अनादि सिद्ध परमेश्वर हैं एवं निगमागम आदि सभी शास्त्रों में महिमामण्डित महादेव हैं। वेदों ने इस परमतत्त्व को अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, विश्वपंच का स्रष्टा, पालक एवं संहारक कहकर उनका गुणगान किया है। श्रुतियों ने सदा शिव को स्वयम्भू, शान्त, प्रपंचातीत, परात्पर, परमतत्त्व, ईश्वरों के भी परम महेश्वर कहकर स्तुति की है। ‘शिव’ का अर्थ ही है- ‘कल्याणस्वरूप’ और ‘कल्याणप्रदाता’। परमब्रह्म के इस कल्याण रूप की उपासना उटच्च कोटि के सिद्धों, आत्मकल्याणकामी साधकों एवं सर्वसाधारण आस्तिक जनों-सभी के लिये परम मंगलमय, परम कल्याणकारी, सर्वसिद्धिदायक और सर्वश्रेयस्कर है। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि देव, दनुज, ऋषि, महर्षि, योगीन्द्र, मुनीन्द्र, सिद्ध, गन्धर्व ही नहीं, अपितु ब्रह्मा-विष्णु तक इन महादेव की उपासना करते हैं। इस पुराण के अनुसार यह पुराण परम उत्तम शास्त्र है। इसे इस भूतल पर भगवान शिव का वाङ्मय स्वरूप समझना चाहिये और सब प्रकार से इसका सेवन करना चाहिये। इसका पठन और श्रवण सर्वसाधनरूप है। इससे शिव भक्ति पाकर श्रेष्ठतम स्थिति में पहुँचा हुआ मनुष्य शीघ्र ही शिवपद को प्राप्त कर लेता है। इसलिये सम्पूर्ण यत्न करके मनुष्यों ने इस पुराण को पढ़ने की इच्छा की है- अथवा इसके अध्ययन को अभीष्ट साधन माना है। इसी तरह इसका प्रेमपूर्वक श्रवण भी सम्पूर्ण मनोवंछित फलों के देनेवाला है। भगवान शिव के इस पुराण को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है तथा इस जीवन में बड़े-बड़े उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करके अन्त में शिवलोक को प्राप्त कर लेता है। यह शिवपुराण नामक ग्रन्थ चौबीस हजार श्लोकों से युक्त है। सात संहिताओं से युक्त यह दिव्य शिवपुराण परब्रह्म परमात्मा के समान विराजमान है और सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करने वाला है।
  • शिव पुराण का पूरक लिंग पुराण है, जिसे प्रथक पुराण की संज्ञा दी गई है ।

'लिंग पुराण' शैव सम्प्रदाय का पुराण है। 'लिंग' का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं अपितु उनके 'पहचान चिह्न' से है, जो अज्ञात तत्त्व का परिचय देता है। इस पुराण में लिंग का अर्थ विस्तार से बताया गया है। यह पुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप मानता है-

प्रधानं प्रकृतिश्चैति यदाहुर्लिंगयुत्तमम्।

गन्धवर्णरसैर्हीनं शब्द स्पर्शादिवर्जितम् ॥ 

अर्थात् प्रधान प्रकृति उत्तम लिंग कही गई है जो गन्ध, वर्ण, रस, शब्द और स्पर्श से तटस्थ या वर्जित है।

'लिंग पुराण' का कथा भाग 'शिव पुराण' के समान ही है। शैव सिद्धान्तों का अत्यन्त सरल, सहज, व्यापक और विस्तृत वर्णन जैसा इस पुराण में किया गया है, वैसा किसी अन्य पुराण में नहीं है। इस पुराण में कुल एक सौ तिरसठ अध्याय हैं। पूर्वार्द्ध में एक सौ आठ और उत्तरार्ध में पचपन अध्याय हैं। लिंग पुराण में 11000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है । इसमें शिव के अव्यक्त ब्रह्मरूप का विवेचन करते हुए उनसे ही सृष्टि का उद्भव बताया गया है।

भारतीय वेदोंउपनिषदों तथा दर्शनों में सृष्टि का प्रारम्भ 'शब्द ब्रह्म' से माना जाता रहा है। उस ब्रह्म का न कोई आकार है और न कोई रूप। उसी 'शब्द ब्रह्म' का प्रतीक चिह्न साकार रूप में 'शिवलिंग' है। यह शिव अव्यक्त भी है और अनेक रूपों में प्रकट भी होता है। भारतीय मनीषियों ने भगवान के तीन रूपों- 'व्यक्त', 'अव्यक्त' और 'व्यक्ताव्यक्त' का जगह-जगह उल्लेख किया है। 'लिंग पुराण' ने इसी भाव को शिव के तीन स्वरूपों में व्यक्त किया है- एकेनैव हृतं विश्वं व्याप्त त्वेवं शिवेन तु। अलिंग चैव लिंगं च लिंगालिंगानि मूर्तय:॥ अर्थात् शिव के तीन रूपों में से एक के द्वारा सृष्टि (विश्व) का संहार हुआ और उस शिव के द्वारा ही यह व्याप्त है। उस शिव की अलिंग, लिंग और लिगांलिंग तीन मूर्तियां हैं। भाव यही है कि शिव अव्यक्त लिंग (बीज) के रूप में इस सृष्टि के पूर्व में स्थित हैं। वही अव्यक्त लिंग पुन: व्यक्त लिंग के रूप में प्रकट होता है। जिस प्रकार ब्रह्म को पूरी तरह न समझ पाने के कारण 'नेति-नेति' कहा जाता है, उसी प्रकार यह शिव व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। वस्तुत: अज्ञानी और अशिक्षित व्यक्ति को अव्यक्त ब्रह्म (निर्गुण) की शिक्षा देना जब दुष्कर जान पड़ता है, तब व्यक्त मूर्ति की कल्पना की जाती है। शिवलिंग वही व्यक्त मूर्ति है। यह शिव का परिचय चिह्न है। शिव के 'अर्द्धनारीश्वर' स्वरूप से जिस मैथुनी-सृष्टि का जन्म माना जा रहा है, यदि उसे ही जनसाधारण को समझाने के लिए लिंग और योनि के इस प्रतीक चिह्न को सृष्टि के प्रारम्भ में प्रचारित किया गया हो तो क्या यह अनुपयुक्त और अश्लील कहलाएगा। जो लोग इस प्रतीक चिह्न में मात्र भौतिकता को तलाशते हैं, उन्हें इस पर विचार करना चाहिए।

'लिंग पुराण' में लिंग का अर्थ ओंकार (ॐ) बताया गया है। इस पुराण में शिव के अट्ठाईस अवतारों का वर्णन है। उसी प्रसंग में अंधक, जलंधर, त्रिपुरासुर आदि राक्षसों की कथाओं का भी उल्लेख है। 'लिंग पुराण' में सृष्टि की उत्पत्ति पंच भूतों (आकाशवायुअग्निजल और पृथ्वी) द्वारा बताई गई है। प्रत्येक तत्त्व का एक विशेष गुण होता है, जिसे 'तन्मात्र' कहा जाता है। भारतीय मनीषियों के अनुसार, सृष्टि सृजन का विचार जब ब्रह्म के मन में आया तो उन्होंने अविद्या अथवा अहंकार को जन्म दिया। यह अहंकार सृष्टि से पूर्व का गहन अन्धकार माना जा सकता है इस अहंकार से पांच सूक्ष्म तत्त्व- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध उत्पन्न हुए। यही तन्मात्र कहलाए। इनके पांच स्थूल तत्त्व- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी प्रकट हुए। भारतीय सिद्धान्त के अनुसार तत्त्वों के इसी विकास क्रम से सृष्टि का आविर्भाव होता है। यह सिद्धान्त हज़ारों वर्षों से विद्वानों को मान्य है।'लिंग पुराण' के अनुसार सम्पूर्ण विश्व में करोड़ों की संख्या में ब्रह्माण्ड हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के चारों ओर दस गुना जल का आवरण है। यह जल से दस गुना अधिक तेज़ से आवृत्त रहता है। तेज़ से दस गुना आवरण वायु का है, जो तेज़ को ढके रहता है। वायु से भी दस गुना आवरण आकाश का है, जो वायु के ऊपर रहता है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के पृथक् ब्रह्माविष्णु और रुद्र (शिव) अर्थात् कर्त्ता, धर्त्ता तथा संहारकर्त्ता हैं। ब्रह्माण्डों की यह कल्पना विज्ञान सम्मत है। क्योंकि बड़ी-बड़ी दूरबीनों से देखने पर अनेक सूर्यों का पता चलता है जिनका प्रकाश पृथ्वी पर पहुंचने में हज़ारों वर्ष लग जाते हैं।

'लिंग पुराण' इस दृष्टि से विज्ञान पर आधारित है कि इस संसार में जो भी भिन्नता (यथा-धर्म, जाति, सम्प्रदाय, समुदाय, वर्ग, गोत्र आदि) दिखाई पड़ती है, वह सब हमारे द्वारा कल्पित है। यदि मूल रूप से विचार किया जाए तो मनुष्य ही नहीं, समस्त प्राणी उसी प्रकार से एक हैं, जिस प्रकार मुट्ठी भर रेत के सभी कण या किसी पात्र में भरे हुए जल की प्रत्येक बूंद।'धर्म' की व्याख्या करते हुए यह पुराण कहता है कि धर्म और अध्यात्म का वास्तविक सार इसी बात में निहित है कि मनुष्य अपनी संकीर्ण दृष्टि त्याग कर समस्त प्राणियों से आत्मीय भाव का अनुभव करे। कहा गया है- आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स पंडित: अर्थात् जो समस्त प्राणियों में आत्मीय भाव रखता है, वही पंडित है।इस संसार में जितने भी छोटे-बड़े जड़-चेतन पदार्थ दिखाई पड़ते हैं, वे सभी पंचभूतों के ही खेल हैं। 'लिंग पुराण' इस तथ्य को पूरी तरह से स्वीकार करता है। भारतीय दृष्टि में 'सूक्ष्म से स्थूल की ओर' जाने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है। इसीलिए भारतीय मनीषियों ने आकाश से पृथ्वी तक के विकास क्रम को प्रकट किया, जैसा कि ऊपर पदार्थ नहीं मानते, वरन् वे उन्हें उनकी मूल अवस्था के रूप में स्वीकार करते हैं। पृथ्वी तत्त्व में उसकी 'ठोस अवस्था' है। जल तत्त्व से तात्पर्य उसकी 'तरल अवस्था' से है। अग्नि तत्त्व का तात्पर्य उसकी 'ऊष्मता' से है। वायु तत्त्व का आशय उसके 'प्रवहमान स्वरूप' से है और आकाश तत्त्व का आशय उसके 'सूक्ष्म तत्त्व' से है।'लिंग पुराण' में जो उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सभी सार्वजनिक हित के हैं। सर्वप्रथम इस पुराण में सदाचार पर सर्वाधिक बल दिया गया है। भगवान शिव ऐसे लोगों से प्रसन्न होते हैं। जो संयमी, धार्मिक दयावान, तपस्वी, साधु, संन्यासी, सत्यवादी, वेदों और स्मृतियों के ज्ञाता तथा साम्प्रदायिक वैमनस्य से दूर धर्म में आस्था रखते हों। विद्या की साधना करने वाला ही साधु कहलाता है। कल्याणकारी कर्म ही धर्म है। सत्कर्म ही मनुष्य को साधारण से असाधारण बनाते हैं। पुराणकार राजा क्षुप और दधीचि ऋषि की कथा के माध्यम से ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है। दोनों का प्रतिवाद भक्त और शिव-भक्त के मध्य युद्ध के रूप में परिवर्तित हो जाता है। अन्त में विजय दधीचि की होती है, जिन्हें भौतिकता से कोई मोह नहीं है। यही दधीचि ऋषि इन्द्र को वज्र बनाने के लिए अपनी अस्थियों तक का दान दे डालते हैं।चारों युगों के वर्णन से पुराणकार सृष्टि के क्रमिक विकास को ही स्पष्ट करता है। 'सतयुग' के प्राणी परम तृप्त थे। उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। वे अधिकतर पर्वतों और कन्दराओं में रहते थे। निष्काम और कर्मशील थे। उस समय वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं थी। यह मनुष्य की आदिम अवस्था थी। उनकी आवश्यकताएं सीमित थीं। 'त्रेता युग' में जनसंख्या में भारी वृद्धि होने के कारण आहार की कमी होने लगी। सघन वृक्ष उग आए थे। भोजन के लिए वनस्पतियों और फलों का सहारा लेना पड़ता था। इस युग में आपाधापी के कारण वृक्षों को भारी हानि हुई। फिर वे परस्पर मिलकर रहने लगे।

पृथ्वी से जल और खाद्य पदार्थों को प्राप्त करने का ज्ञान उन्हें होने लगा। इसी युग में वर्णों का विभाजन हुआ। 'द्वापर युग' में खाद्य पदार्थों, स्त्रियों और अपने पारिवारिक समुदायों की सुरक्षा के लिए संघर्ष बढ़ गए। भाषा का जन्म हुआ। ग्राम, नगर और राज्य बन गए। 'कलि युग' में जैसे स्वार्थ प्रमुख हो गया और स्वयं के प्रदर्शन की प्रवृत्ति बढ़ गई। आचरणों का पालन दुष्कर प्रतीत होने लगा। पारस्परिक सीमांए, ईर्ष्या और दुराग्रह बढ़ गया। लोग हिंसक होने लगे। वास्तव में युगों का यह वर्णन मानव विकास की ही कहानी है, जो अत्याचार और पतन की चरम स्थिति पर पहुंचकर नष्ट हो जाती है। खगोल विद्या पर भी 'लिंग पुराण' काफ़ी विस्तृत प्रकाश डालता है। इसमें बताया गया है कि चन्द्रमा, नक्षत्र और ग्रह आदि सभी सूर्य से निकले हैं तथा एक दिन उसी में लीन हो जाएंगे। सूर्य ही तीनों लोकों का स्वामी है। काल, ऋतु और युग उसी से उत्पन्न होते हैं तथा उसी में लय हो जाते हैं। जीवनी-शक्ति उसी से प्राप्त होती है। 'लिंग पुराण' में धार्मिक सहिष्णुता पर विशेष बल दिया गया है। नग्न रहने वाले और जल को छानकर पीने वाले अहिंसावादी जैन साधुओं को यथोचित आदर दिया गया है। सांसारिक कष्टों की निवृत्ति के लिए मुख्य मार्ग 'ध्यान' को बताया गया है। ज्ञान द्वारा अविद्या जन्य कामनाओं को नष्ट किया जा सकता है। इस पुराण में 'योग' के पांच प्रकार बताए गए हैं- मन्त्र योग, स्पर्श योग, भाव योग, अभाव योग और महायोग। 'मन्त्र योग' में मन्त्रों का जप और ध्यान किया जाता है। 'स्पर्श योग' में योगियों द्वारा बताए गए 'अष्टांग योग' का वर्णन आता है। 'भाव योग' में राजयोग की भांति शिव की मन से आराधना की जाती है। 'अभाव योग' इस संसार को सर्वथा शून्य और मिथ्या मानता है। यह क्षणभंगुर है। जन्दी ही समाप्त हो जाने वाला है। 'महायोग' इन सभी प्रकार के योगों का संकलित एवं कल्याणकारी स्वरूप है।

'लिंग पुराण' के अन्य प्रतिपाद्य विषयों में शिव की उपासना, गायत्री महिमा, पंच यज्ञ विधान, भस्म और स्नान विधि, सप्त द्वीप, भारतर्ष की वर्णन, ज्योतिष चक्र आख्यान, ध्रुव आख्यान, सूर्य और चन्द्र वंश वर्णन, काशी माहात्म्य, दक्ष-यज्ञ विध्वंस, मदन दहन, उमा स्वयंवर, शिव तांडव, उपमन्यु चरित्र, अम्बरीष चरित्र, अघोर रूप धारी शिव की प्रतिष्ठा तथा त्रिपुर वध आदि का वर्णन शामिल है।पौराणिक दृष्टि से 'लिंग पुराण' अनेक पुराणों से अधिक शिक्षाप्रद और सदुपदेश परक है। शिव तत्त्व की गम्भीर समीक्षा इसी पुराण में प्राप्त होती है। शिव ही पंचमुखी ब्रह्मा के रूप में प्रकट होते हैं। वे ही सृष्टि के नियन्ता और संहारक हैं। वस्तुत: शैव मत का प्रतिपादन करते हुए भी 'लिंग पुराण' ब्रह्म की एकता का सिद्धान्त प्रतिपादित करता है। सभी विद्धान इस तथ्य को स्वीकार भी करते हैं।

वराहपुराण में भगवान् श्रीहरि के वराह अवतार की मुख्य कथा के साथ अनेक तीर्थ, व्रत, यज्ञ, दान आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसमें भगवान् नारायण का पूजन-विधान, शिव-पार्वती की कथाएँ, सोरों सूकर(वराह)क्षेत्रवर्ती आदित्यतीर्थ, चक्रतीर्थ, वैवस्वततीर्थ, शाखोटकतीर्थ, रूपतीर्थ, सोमतीर्थ, योगतीर्थ आदि तीर्थों की महिमा, मोक्षदायिनी नदियों की उत्पत्ति और माहात्म्य एवं त्रिदेवों की महिमा आदि पर भी विशेष प्रकाश डाला गया है। वराह पुराण में 24000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।

यह पुराण दो भागों से युक्त है और सनातन भगवान् विष्णु के माहात्म्य का सूचक है।वराहपुराण की श्लोक संख्या चौबीस हजार है, इसे सर्वप्रथम प्राचीन काल में वेदव्यास जी ने लिपिबद्ध किया था। इसमें भगवान श्रीहरि के वराह अवतार की मुख्य कथा के साथ अनेक तीर्थों (मुख्यतः सोरों सूकरक्षेत्र), व्रत, यज्ञ-यजन, श्राद्ध-तर्पण, दान और अनुष्ठान आदि का शिक्षाप्रद और आत्मकल्याणकारी वर्णन है। भगवान श्रीहरि की महिमा, पूजन-विधान, हिमालय की पुत्री के रूप में गौरी की उत्पत्ति का वर्णन और भगवान शंकर के साथ उनके विवाह की रोचक कथा इसमें विस्तार से वर्णित है। इसके अतिरिक्त इसमें सोरों सूकर(वराह)क्षेत्रवर्ती आदित्यतीर्थ, चक्रतीर्थ, रूपतीर्थ, योगतीर्थ, सोमतीर्थ, शाखोटकतीर्थ, वैवस्वततीर्थ आदि तीर्थों का वर्णन, भगवान् श्रीकृष्ण और उनकी लीलाओं के प्रभाव से मथुरामण्डल और व्रज के समस्त तीर्थों की महिमा और उनके प्रभाव का विशद तथा रोचक वर्णन है। वराहपुराण में सबसे पहले पृथ्वी और वराह भगवान् का शुभ संवाद है, जोकि सतयुगीन गृद्धवट के नीचे सोरों शूकरक्षेत्र में हुआ था। तदनन्तर आदि सत्ययुग के वृतांत में रैम्य का चरित्र है, फ़िर दुर्जेय के चरित्र और श्राद्धकल्प का वर्णन है, तत्पश्चात महातपा का आख्यान, गौरी की उत्पत्ति, विनायक, नागगण सेनानी (कार्तिकेय) आदित्यगण देवी धनद तथा वृष का आख्यान है। उसके बाद सत्यतपा के व्रत की कथा दी गयी है, तदनन्तर अगस्त्य गीता तथा रुद्रगीता कही गयी है, महिषासुर के विध्वंस में ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तीनों की शक्तियों का माहात्म्य प्रकट किया गया है, तत्पश्चात पर्वाध्याय श्वेतोपाख्यान गोप्रदानिक इत्यादि सत्ययुग वृतान्त मैंने प्रथम भाग में दिखाया गया है, फ़िर भगवद्धर्म में व्रत और तीर्थों की कथायें हैं, बत्तीस अपराधों का शारीरिक प्रायश्चित बताया गया है, प्राय: सभी तीर्थों के पृथक्-पृथक् माहात्म्य का वर्णन है, मथुरा की महिमा विशेषरूप से दी गयी है, उसके बाद श्राद्ध आदि की विधि है, तदनन्तर ऋषि पुत्र के प्रसंग से यमलोक का वर्णन है, कर्मविपाक एवं विष्णुव्रत का निरूपण है, गोकर्ण के पापनाशक माहात्म्य का भी वर्णन किया गया है, इस प्रकार वराहपुराण का यह पूर्वभाग कहा गया है, उत्तर भाग में पुलस्त्य और पुरुराज के सम्वाद में विस्तार के साथ सब तीर्थों के माहात्म्य का पृथक्-पृथक् वर्णन है। फ़िर सम्पूर्ण धर्मों की व्याख्या और पुष्कर नामक पुण्य पर्व का भी वर्णन है। 

स्कंद पुराण-पुराणों के क्रम में इसका तेरहवां स्थान है। अपने वर्तमान में इसके खंडात्मक और संहितात्मक दो रूप उपलब्ध हैं और दोनों में से प्रत्येक में 81 हज़ार श्लोक हैं। इस प्रकार यह आकार की दृष्टि से सबसे बड़ा पुराण है। इसमें स्कंद (कार्तकेय) द्वारा शिवतत्व का वर्णन किया गया है। इसीलिए इसका नाम स्कंद पुराण पड़ा। इसमें तीर्थों के उपाख्यानों और उनकी पूजा-पद्धति का भी वर्णन है। 'वैष्णव खंड' में जगन्नाथपुरी की और 'काशीखंड' में काशी के समस्त देवताओं, शिवलिंगों का आविर्भाव और महात्म्य बताया गया है। 'आवन्यखंड' में उज्जैन के महाकलेश्वर का वर्णन है।

शिव-पुत्र कार्तिकेय का नाम ही स्कन्द है। स्कन्द का अर्थ होता है- क्षरण अर्थात् विनाश। भगवान शिव संहार के देवता हैं। उनका पुत्र कार्तिकेय संहारक शस्त्र अथवा शक्ति के रूप में जाना जाता है। तारकासुर का वध करने के लिए ही इसका जन्म हुआ था। 'स्कन्द पुराण' शैव सम्प्रदाय का पुराण हैं यह अठारह पुराणों में सबसे बड़ा है। इसके छह खण्ड हैं- माहेश्वर खण्ड, वैष्णव खण्ड, ब्रह्म खण्ड, काशी खण्ड, अवन्तिका खण्ड और रेवा खण्ड।

माहेश्वर खण्ड - इस खण्ड में दक्ष-यज्ञ वर्णन, सती दाह, देवताओं और शिव गणों में युद्ध, दक्ष-यज्ञ विध्वंस, लिंग प्रतिष्ठा वर्णन, रावणोपाख्यान, समुद्र मंथनलक्ष्मी की उत्पत्ति, अमृत विभाजन, शिवलिंग माहात्म्य, राशि-नक्षत्र वर्णन, दान भेद वर्णन, सुतनु-नारद संवाद, शिव पूजन का माहात्म्य, शिव तीर्थों सहित शाक्तिपीठ आदि की प्रशंसा, अरुणाचल स्थान का महत्त्व तथा विष्णु को शिव का ही रूप बताया गया है। विष्णु और शिव में कोई अन्तर नहीं है। यथा शिवस्तथा विष्णुर्यथा विष्णुस्तथा शिव:। अन्तरं शिव विष्णोश्च मनागपि न विद्यते ॥ अर्थात् जिस प्रकार शिव हैं, उसी प्रकार विष्णु हैं और जैसे विष्णु हैं, वैसे ही शिव हैं। इन दोनों में तनिक भी अन्तर नहीं है।

माहेश्वर खण्ड में कहा गया है- यो विष्णु: स शिवोज्ञेय: य: शिवो विष्णुरेव स: अर्थात् जो विष्णु हैं, उन्हीं को शिव जानना चाहिए और जो शिव हैं, उन्हें विष्णु मानना चाहिए। प्रकार दोनों में कोई भेद नहीं है। इसी सद्भावना के कारण 'स्कन्द पुराण' में शैव मत के सिद्धान्त होने के उपरान्त भी वैष्णव मत के प्रति किसी प्रकार की निन्दा या दुर्भावना दृष्टिगोचर नहीं होती। इस खण्ड में अनेक छोटे-बड़े तीर्थों का वर्णन करते हुए शिव महिमा गाई गई है। इसके अलावा ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, गन्धर्व, ऋषि-मुनि, दानव-दैत्य आदि की सुन्दर कथाओं का वर्णन भी किया गया है। इसी खण्ड के 'कौमारिका खण्ड' में एक ऐसी कथा दी गई है, जिसमें सम्प्रदायों के नाम पर संकीर्ण विचार रखने वालों की खुलकर भर्त्सना है। राजा करन्धम अपनी शंका-समाधान के लिए महाकाल से पूछता है कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए कोई शिव का, कोई विष्णु का और कोई ब्रह्मा का आश्रय ग्रहण करता है। इस विषय में आपका क्या कहना है?  इस पर महाकाल उत्तर देते हैं कि एक बार पहले भी ऋषि-मुनियों ने नैमिषारण्य में वास करते हुए यह प्रश्न सूत जी से पूछा था। सूत जी ने अपनी दिव्य शक्ति से उन्हें पहले ब्रह्मलोक में, फिर वैकुण्ठ लोक में और फिर कैलास पर भेजा। वहां उन्होंने देखा कि ब्रह्मा जी विष्णु और शिव की उपासना कर रहे हैं। विष्णु जी ब्रह्मा और शिव की उपासना में मगन हैं। शिव जी विष्णु तथा ब्रह्मा के ध्यान में रत दिखाई दिए। तब ऋषियों ने जाना कि ये त्रिदेव एक ही परम शक्ति के रूप हैं, जो परस्पर एक-दूसरे को महान् समझते हैं। पुराणकार द्वारा व्यक्त की गई यह सद्भावना अति सुन्दर और स्तुति करने योग्य है। अधिकांश पुराणों में 'बुद्धावतार' का नाम देने के अतिरिक्त उनकी कोई भी चर्चा नहीं की गई है। परन्तु 'स्कन्द पुराण' में उनका 'माया-मोह' के नाम से विस्तृत वर्णन किया गया है, जो पुराणकार की निष्पक्ष मनोवृत्ति की परिचायक है। कलियुग प्रसंग में बुद्ध का विस्तार से वर्णन है और उन्हें विष्णु का अवतार माना गया है। उनके माध्यम से 'अहिंसा' और 'सेवा भाव' का मार्ग प्रशस्त किया गया है।

वैष्णव खण्ड-वैष्णव खण्ड में वेंकटाचल माहात्म्य, वराह मन्त्र उपासना विधि, रामानुजाचार्य, भद्रमति ब्राह्मण की महिमा और चरित्र वर्णन वेंकटाचल तीर्थ का वर्णन, ब्रह्मा की प्रार्थना पर विष्णु का आविर्भाव, रथ निर्माण प्रकरण, जगन्नाथपुरी का रथ महोत्सव, बद्रिकाश्रम तीर्थ की महिमा, कार्तिक मास में होने वाले व्रतों की महिमा का वर्णन, स्नान माहात्म्य का उल्लेख, ज्ञान, वैराग्य एवं भक्ति का स्वरूप तथा कर्म योग आदि का निरूपण किया गया है।वैष्णव खण्ड अत्यन्त उपयोगी है। इसमें विविध ज्ञान, पुण्य और मोक्ष का मार्ग् प्रशस्त करने का प्रयास किया गया है। इस खण्ड के गंगायमुना और सरस्वती खण्ड अत्यन्त पवित्र तथा उत्कृष्ट हैं। ये समस्त पापों को हरने वाले हैं। वेंकटाचल या भूमि वराह खण्ड में तिरूपति बालाजी के पावन तीर्थ के प्रादुर्भाव की कथा कही गई है। वहां की यात्रा के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है, जहां भगवान विष्णु निवास करते हैं। आकाश गंगा तीर्थ का वर्णन करते हुए पुराणकार विष्णु और रामानुजाचार्य की भेंट कराते हैं। रामानुजाचार्य वैष्णव सम्प्रदाय के संस्थापक थे। राम की पूजा सारे भारत में स्थापित करने का श्रेय इन्हें जाता है। भगवान विष्णु रामानुजाचार्य को स्वयं बताते हैं कि सूर्य की मेष राशि में चित्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा को जो भी व्यक्ति आकाश गंगा तीर्थ में स्नान करेगा, उसे अनन्त पुण्य प्राप्त होंगे। भगवान के सच्चे भक्तों के लक्षण स्वयं विष्णु भगवान रामानुजाचार्य को बताकर उनका सम्मान करते हैं। यहाँ पुराणकार पूजा-पाठ और कर्मकाण्ड के बजाय सादा जीवन, सदाचार, अहिंसा, जीव-कल्याण, समभाव तथा परोपकार पर अधिक बल देता है। 'स्कन्द पुराण' कहता है कि ममता-मोह त्याग कर निर्मल चित्त से मनुष्य को भगवान के चरणों में मन लगाना चाहिए। तभी वह कर्म के बन्धनों से मुक्त हो सकता है। मन के शान्त हो जाने पर ही व्यक्ति योगी हो पाता है। जो व्यक्ति राग-द्वेष छोड़कर क्रोध और लोभ से दूर रहता है, सभी पर समान दृष्टि रखता है तथा शौच-सदाचार से युक्त रहता है; वही सच्चा योगी है। 'बद्रिकाश्रम' की महिमा का बखान करते हुए स्वयं शंकर जी कहते हैं कि इस तीर्थ में

  1. नारद शिला,
  2. मार्कण्डेय शिला,
  3. गरुड़ शिला,
  4. वराह शिला और
  5. नारसिंही शिला- ये पांच शिलाएं सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध करने वाली हैं। बद्रीनाथ प्रसिद्ध ब्रह्मतीर्थ है। यहाँ भगवान विष्णु ने ह्यग्रीव का अवतार लेकर मधु-कैटभ दैत्यों से वेदों को मुक्त कराया था।

इसी खण्ड में श्रावण और कार्तिक मास के माहात्म्य का वर्णन भी प्राप्त होता है। तदुपरान्त वैशाख मास का महात्म्य प्रतिपादित है। इस मास में दान का विशेष महत्त्व दर्शाना गया है। इसी खण्ड में अयोध्या माहात्म्य का वर्णन भी विस्तारपूर्वक किया गया है।

ब्रह्म खण्ड-ब्रह्म खण्ड में रामेश्वर क्षेत्र के सेतु और भगवान राम द्वारा बालुकामय शिवलिंग की स्थापना की महिमा गाई गई है। इस क्षेत्र के अन्य चौबीस प्रधान तीर्थों- चक्र तीर्थ, सीता सरोवर तीर्थ, मंगल तीर्थ, ब्रह्म कुण्ड, हनुमत्कुण्ड, अगस्त्य तीर्थ, राम तीर्थ, लक्ष्मण तीर्थ, लक्ष्मी तीर्थ, शिव तीर्थ, शंख तीर्थ, गंगा तीर्थ, कोटि तीर्थ, मानस तीर्थ, धनुषकोटि तीर्थ आदि की महिमा का वर्णन भी विस्तार से हैं तीर्थ माहात्म्य के उल्लेख के उपरान्त धर्म और सदाचार माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। ह्यग्रीव, कलिधर्म और चातुर्मास स्नान के महत्त्व का भी उल्लेख हुआ है। अश्वत्थामा द्वारा सोते हुए पाण्डव पुत्रों के वध के पाप से मुक्ति पाने के लिए धनुषकोटि तीर्थ में स्नान करने की कथा कही गई है। इसी खण्ड में पंचाक्षर मन्त्र की महिमा का भी वर्णन है। भगवान शिव ने स्वयं ॐ नम: शिवाय नामक आद्य मन्त्र कहा था। जो व्यक्ति इस मन्त्र का उच्चारण करके शिव का ध्यान करता है; उसे किसी तीर्थ, किसी जप-तप अथवा व्रत आदि करने की आवश्यकता नहीं होतीं उक्त मन्त्र समस्त पापों का नाश करने वाला है। यह मन्त्र कभी भी, कहीं भी और कोई भी जप करता है। यह सभी का कल्याण करने वाला मन्त्र है।

काशी खण्ड-काशी खण्ड में तीर्थों, गायत्री महिमा, वाराणसी के मणिकर्णिका घाट का आख्यान, गंगा महिमा वर्णन, दशहरा स्तोत्र कथन, वाराणसी महिमा, ज्ञानवापी माहात्म्य, योगाख्यान, दशाश्वमेघ घाट का माहात्म्य, त्रिलोचन आविर्भाव वर्णन तथा व्यास भुजस्तम्भ आदि का उल्लेख किया गया है।काशी के माहात्म्य का वर्णन करते हुए पुराणकार कहता है-असि सम्भेदतोगेन काशीसंस्थोऽमृतो भवेत्। देहत्यागोऽत्रवैदानं देहत्यागोऽत्रवैतप:॥अर्थात् अनेक जन्मों से प्रसिद्ध, प्राकृत गुणों से युक्त तथा असि सम्भेद के योग से काशीपुरी में निवास करने से विद्वान पुरुष अमृतमय हो जाता है। वहां अपने शरीर का त्याग कर देना ही दान होता है। यही सबसे बड़ा तप है। इस पुरी में अपना शरीर छोड़ना बड़ा भारी योगाभ्यास है, जो मोक्ष तथा सुख देने वाला है। इसी प्रकार योग-साधना के विषय में पुराणकार कहता है-

आत्मक्रीडास्यसततं सदात्म मिथुनस्य च। आत्मन्येव सुतृप्तस्य योगसिद्धिरदूरत: ॥अर्थात् निरन्तर अपनी आत्मा के ही साथ क्रीड़ा करने वाले, सदा आत्मा के ही साथ योग स्थापित रखने वाले तथा अपनी आत्मा में ही संतृप्त रहने वाले व्यक्ति को योग की सिद्धि प्राप्त करने में विलम्ब नहीं लगता। वह सिद्ध उससे कभी दूर नहीं होता।काशीपुरी में पापकर्म करने वाला व्यक्ति पैशाच (प्रेत) योनि में जन्म लेता है। गाय की हत्या करने वाला, स्त्री का वध करने वाला, शूद्रों को मारने वाला, कथा को दूषित करने वाला, क्रूर, चुगलखोर, धर्म विरूऋ आचरण करने वाला, नास्तिक, पापी और अभक्ष्य को भी खाने वाला व्यक्ति त्रिलोचन भगवान शिव के लिंग का नमन करके पापमुक्त हो जाता है।

अवन्तिका खण्ड-अवन्तिका खण्ड में महाकाल प्रशंसा, अग्नि स्तवन, सिद्याधर तीर्थ, दशाश्वमेघ माहात्म्य, वाल्मीकेश्वर महिमा, गणेश महिमा, सोमवती तीर्थ, रामेश्वर तीर्थ, सौभाग्य तीर्थ, गया तीर्थ, नाग तीर्थ, गंगेश्वर, प्रयागेश्वर तीर्थ आदि का माहात्म्य; क्षिप्रा नदी की महिमा, विष्णु स्तोत्र, कुटुम्बेश्वर वर्णन, अखण्डेश्वर महिमा वर्णन, हनुमत्केश्वर महिमा, शंकरादित्य महिमा, विष्णु महिमा तथा अवन्तिका महिमा आदि का विस्तार से वर्णन है। अवन्तिका उज्जैन नगरी का प्राचीन नाम है। अवन्तिका खण्ड में पवित्र नदियों- गंगायमुनासरस्वतीनर्मदागोदावरीवितस्ताचन्द्रभागा आदि की महिमा भी गाई गई है। साथ ही अग्नि तुल्य 'महाकाल' की वन्दना की गई है। इस खण्ड में सनत्कुमार जी क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित अवन्तिका तीर्थ की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस तीर्थ के दर्शन मात्र से मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार अन्य तीर्थों की महिमा का उल्लेख भी इस खण्ड में प्राप्त होता है।

'स्कन्द पुराण'-'स्कन्द पुराण का रेवा खण्ड पुराण संहिता का विस्तारपूर्वक वर्णन करता है। इसके अतिरिक्त रेवा माहात्म्य, नर्मदा, कावेरी और संगम की महिमा, शूल भेद प्रशंसा, कालरात्रि कृत जगत् संहार वर्णन, सृष्टि संहार वर्णन, शिव स्तुति निरूपण, वराह वृत्तान्त, सत्यनारायण व्रत कथा वर्णन, रेवा खण्ड पुस्तक का दान महत्त्व तथा विविध तीर्थों, यथा- मेघनाद तीर्थ, भीमेश्वर तीर्थ, नारदेश्वर तीर्थ, दीर्घ स्कन्द और मधुस्कन्द तीर्थ, सुवर्ण शिला तीर्थ, करंज तीर्थ, कामद तीर्थ, भंडारी तीर्थ, स्कन्द तीर्थ, अंगिरस तीर्थ, कोटि तीर्थ, केदारेश्वर तीर्थ, पिशाचेश्वर तीर्थ, अग्नि तीर्थ, सर्प तीर्थ, श्रीकपाल तीर्थ एवं जमदग्नि तीर्थ आदि का विस्तृत वर्णन इस खण्ड में प्राप्त होता है। स्कन्द तीर्थ के विषय में मार्कण्डेय मुनि कहते हैं कि नर्मदा महानदी के दक्षिण तट पर यह तीर्थ अत्यन्त शोभायमान है। इस तीर्थ की स्थापना भगवान स्कन्द ने घोर तपस्या करने के उपरान्त की थी। मार्कण्डेय ऋषि स्कन्द भगवान की कथा युधिष्ठर को सुनाते हुए उनके जन्म से लेकर तारकासुर के वध तक का वर्णन करते हैं। देवताओं के सेनापति बनने के पूर्व जिस स्थान पर कार्तिकेय ने तप किया था, वह स्थान स्कन्द तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इसी प्रकार सभी तीर्थों की महिमा के साथ कोई न कोई कथा जुड़ी हुई है। हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक और अटक से लेकर कामाख्या देवी के मन्दिर तक कोई ऐसा प्रदेश इस भारतभूमि में नहीं है, जहां प्राचीनतम भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई तीर्थ न हो। काशी में शैव तीर्थ, अवन्तिका (उज्जैन नगरी) में महाकालेश्वर शिव की महिमा तथा नर्मदा तटवर्ती तीर्थों का विशद् वर्णन 'स्कन्द पुराण' में प्राप्त होता है। नर्मदा को शिव के पसीने से उत्पन्न माना जाता है। नर्मदा की महिमा गंगा के पावन जल की भांति ही मानी गई है। इस पुराण में 'निष्काम कर्म योग' पर विशेष रूप से बल दिया गया है। धर्म का मुख्य लक्षण परपीड़ा निवारण होना चाहिए। इसी का उपदेश 'स्कन्द पुराण' देता है। वह बताता है कि 'मोक्ष' मानो एक नगर है, जिसके चार दरवाज़े हैं। शम, सद्विचार, सन्तोष औ सत्संग- इसके चार द्वारपाल हैं। इन्हें सन्तुष्ट करके ही इस नगर में प्रवेश पाया जा सकता है। सांसारिक बन्धनों में जकड़ने से बचे रहें, सम्भवत: इसीलिए कुमार कार्तिकेय जीवन भर वैवाहिक बन्धन में नहीं बंधे- ऐसा यह पुराण मानता है।'स्कन्द पुराण' के दारूकवन उपाख्यान में शिवलिंग की महिमा का वर्णन है, जिसमें विष्णु और ब्रह्मा शिवलिंग का ओर-छोर सात आकाश तथा सात पाताल पार करने के उपरान्त भी नहीं जान पाते। इस अवसर पर ब्रह्मा का झूठ उन्हें स्तुति से वंचित करा देता है। उनके दो गवाह सुरभि गाय तथा केतकी का फूल अपवित्र हो गया और केतकी का पुष्प शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए वर्जित माना गया। इस प्रसंग से विश्व निर्माता शक्ति के अनन्त रूप का भी प्रतिपादन होता है। इस पुराण की रचना के पीछे पुराणकार की यही मंशा रही होगी कि लोकमानस में जटिल कर्मकाण्डों के प्रति झुकाव न होकर सरल रूप से हरि संकीर्तन का मार्ग प्रशस्त हो। इसलिए पुराणकार ने राम नाम महिमा, शिव नाम महिमा और कृष्ण नाम महिमा का उल्लेख विस्तार से किया है। यदि इस पुराण को तीर्थों की निर्देशिका माना जाए तो अनुचित नहीं होगा।'स्कन्द पुराण' के अरुणाचल रहस्य वर्णन में लगभग एक सौ चालीस महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध ऋषि-मुनियों के नाम गिनाए गए हैं। ब्रह्मा के मानस पुत्र सनक, नारद, सनातन, सनत्कुमार, पुलह, पुलस्त्य, वसिष्ठ, भृगु, पराशर, व्यास, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, चरक, सुश्रु आदि हैं। ऐसा लगाता है कि उस समय तक सभी प्रचलित और प्रसिद्ध नामों को यहाँ संकलित कर दिया गया है। इस पुराण मं 'अहिंसा', 'सदाचार' तथा 'परदुख कातरता' पर विशेष बल दिया गया है। दरिद्र, रोगी एवं विकलांग व्यक्तियों के प्रति जिनके मन में करुणा नहीं उत्पन्न होती, वे राक्षस हैं। जो व्यक्ति समर्थ होकर भी प्राण-संकट में पड़े जीव की सहायता नहीं करता, वह पापी है। नर्मदा नदी के तट पर 'आपस्तम्ब' नामक ऋषि और मछेरों द्वारा मछली पकड़ने के प्रसंग में इसी भावना का उत्तम वर्णन किया गया है। 'स्कन्द पुराण' में जितने तीर्थों का उल्लेख है, उतने तीर्थ आज देखने में नहीं आते। उनमें से अधिकांश तीर्थों का तो नामोनिशान तक मिट गया है और कुछ तीर्थ खण्डहरों में परिवर्तित हो चुके हैं। इस कारण समस्त तीर्थों का सही-सही पता लगाना अत्यन्त कठिन है। किन्तु जिन तीर्थों का माहात्म्य प्राचीन काल से चला आ रहा है, उनका अस्तित्व आज भी देखा जा सकता है। अपने माहात्म्य की दृष्टि से ये तीर्थ आज भी भव्य से भव्यतर रूप में देखे जा सकते हैं।


'वामन पुराण' नाम से तो वैष्णव पुराण लगता है, क्योंकि इसका नामकरण विष्णु के 'वामन अवतार' के आधार पर किया गया है, परन्तु वास्तव में यह शैव पुराण है। इसमें शैव मत का विस्तारपूर्वक वर्णन प्राप्त होता है। यह आकार में छोटा है। कुल दस हज़ार श्लोक हैं, किन्तु फिलहाल छह हज़ार श्लोक ही उपलब्ध हैं। इसका उत्तर भाग प्राप्त नहीं है। इस पुराण में पुराणों के सभी अंगों का यथोचित वर्णन किया गया है। इसकी प्रतिपादन शैली अन्य पुराणों से कुछ भिन्न है। ऐसा लगता है कि इसे कई विद्वानों ने अलग-अलग समय पर लिखा था। इसमें जो पौराणिक उपाख्यान दिए गए हैं, वे अन्य पुराणों में वर्णित उपाख्यानों से भिन्न हैं। किन्तु यहाँ उनका उल्लेख स्पष्ट और विवेचनापूर्ण है।

शैव पुराण होते हुए भी 'वामन पुराण' में विष्णु को कहीं नीचा नहीं दिखाया गया है। एक विशेष बात यह हे कि इस पुराण का नामकरण जिस राजा बलि और वामन चरित्र पर किया गया है, उसका वर्णन यद्यपि इसमें दो बार किया गया है, परंतु वह बहुत ही संक्षेप में है।

वेदों में कहा गया है- 'यह समस्त जगत विष्णु के तीन चरणों के अन्तर्गत है।' इसी की व्याख्या करते हुए ब्राह्मण ग्रन्थों में एक संक्षिप्त कथानक जोड़ा गया। उसे ही पुराणकारों ने अपने काव्य और साहित्यिक ज्ञान द्वारा एक प्रभावशाली रूप दे दिया। इस उपाख्यान के अन्तर्गत दैत्यराज प्रह्लाद के पौत्र राजा बलि का वैभवपूर्ण वर्णन करते हुए उसकी दानशीलता की प्रशंसा की गई है। उपाख्यान इस प्रकार है कि एक बार राजा बलि ने देवताओं पर चढ़ाई करके इन्द्रलोक पर अधिकार कर लिया। उसके दान के चर्चे सर्वत्र होने लगे। तब विष्णु वामन अंगुल का वेश धारण करके राजा बलि से दान मांगने जा पहुंचे। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने बलि को सचेत किया कि तेरे द्वार पर दान मांगने स्वयं विष्णु भगवान पधारे है। उन्हें दान मत दे बैठनां परन्तु राजा बलि उनकी बात नहीं माना। उसने इसे अपना सौभाग्य समझा कि भगवान उसके द्वार पर भिक्षा मांगने आए हैं। तब विष्णु ने बलि से तीन पग भूमि मांगी। राजा बलि ने संकल्प करके भूमि दान कर दी। तब विष्णु ने अपना विराट रूप धारण करके दो पगों में तीनों लोक नाप लिया और तीसरा पग राजा बलि के सिर पर रखकर उसे पाताल भेज दिया। इस प्रकरण में विष्णु को सृष्टि का नियन्ता और दैत्यराज बलि को दानवीरता प्रदर्शित की गई है। परन्तु यह कथा ही 'वामन पुराण' की प्रमुख वर्ण्य-विषय नहीं है। इस पुराण में शिव चरित्र का भी विस्तार से वर्णन है।

प्रसिद्ध प्रचलित कथाओं के अनुसार सती बिना निमन्त्रण के अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाती हैं और वहां शिव का अपमान हुआ देखकर अग्नि दाह कर लेती हैं। परन्तु 'वामन पुराण' के अनुसार गौतम-पुत्री जया सती के दर्शन के लिए आती हैं। उससे सती को ज्ञात होता है कि जया की अन्य बहनें विजया, जयन्ती एवं अपराजिता अपने नाना दक्ष के यज्ञ में गई हैं। इस बात को सुनकर सती शिव को निमन्त्रण न आया जानकर शोक में डूब जाती है और वहीं भूमि पर गिरकर अपने प्राण त्याग देती है। यह देख शिव की आज्ञा से वीरभद्र अपनी सेना के साथ जाता है और दक्ष-यज्ञ का विध्वंस कर देता है। 'वामन पुराण' में काम-दहन की कथा भी सर्वथा भिन्न है। इसमे दिखाया गया है कि शिव जब दक्ष-यज्ञ का विध्वंस कर रहे थे तब कामदेव ने उन पर 'उन्माद' ,'संताप' और 'विज्रम्भण' नामक तीन बाण चलाए, जिससे शिव विक्षिप्त होकर सती के लिए विलाप करने लगे। व्यथित होकर उन्होंने वे बाण कुबेर के पुत्र पांचालिक को दे दिए। जब कामदेव फिर बाण चलाने लगा तो शिव भागकर दारूकवन में चले गए। वहां तपस्या रत ऋषियों की पत्नियां उन पर आसक्त हो गईं। इस पर ऋषियों ने शिवलिंग खंडित होकर गिरने का शाप दे दिया। शाप के कारण जब शिवलिंग धरती पर गिर पड़ा, तब सभी ने देखा कि उस लिंग का तो कोई ओर-छोर ही नहीं है। इस पर सभी देवगण शिव की स्तुति करने लगे। ब्रह्मा और विष्णु ने भी स्तुति की। तब शिव ने प्रसन्न होकर पुन: लिंग धारण किया। इस पर विष्णु ने चारों वर्णों द्वारा शिवलिंग की उपासना का नियम प्रारम्भ किया। साथ ही 'शैव', 'पाशुपत' , 'कालदमन' और 'कापालिक' नामक चार प्रमुख शास्त्रों की रचना की। एक कथा इस प्रकार है कि एक बार शिव चित्रवन में तपस्या कर रहे थे। तभी कामदेव ने उन पर फिर आक्रमण किया। तब शंकर भगवान ने क्रोध में आकर उसे अपनी दृष्टि से भस्म कर दिया। भस्म होने के उपरान्त वह राख नहीं बना, अपितु पांच पौधों के रूप में परिवर्तित हो गया। वे पौधे दुक्मधृष्ट, चम्पक, वकुल, पाटल्य और जातीपुष्प कहलाए।इस प्रकार 'वामन पुराण' में कामदेव के भस्म होकर अनंग हो जाने का वर्णन नहीं मिलता, बल्कि वह सुगन्धित फूलों के रूप में परिवर्तित हो गया। इस पुराण में बसंत का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है-

ततो वसन्ते संप्राप्ते किंशुका ज्वलनप्रभा:। निष्पत्रा: सततंरेजु: शोभयन्तो धरातलम्॥ अर्थातृ बसन्त ऋतु के आगमन पर ढाक के वृक्ष, लाल वर्ण वाले पुष्पों के कारण अग्नि के समान प्रभा वाले प्रतीत हो रहे थे। उन लाल पुष्पों के गुच्छों से लदे वृक्षों के कारण धरा शोभायमान हो रही थी। इसके अतिरिक्त 'वामन पुराण' में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विस्तार और भूगोल का भी उल्लेख है। भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों, पर्वतों, प्रसिद्ध स्थलों और नदियों का भी वर्णन प्राप्त होता है। पाप-पुण्य तथा नरक का वर्णन भी इस पुराण में है। व्रत, पूजा, तीर्थाटन आदि का महत्त्व भी इसमें बताया गया है। जिस व्यक्ति को 'आत्मज्ञान' प्राप्त हो जाता है; उसे तीर्थों व्रतों आदि की आवश्यकता नहीं रह जाती । सच्चा ब्राह्मण वही है, जो धन की लालसा नहीं करता और दान ग्रहण करना हीन कार्य समझता है। प्राणीमात्र के कल्याण को ही वह अपना धर्म मानता है। 'वामन पुराण' में राक्षस राजाओं को रक्तपिपासु या दुष्प्रवृत्तियों से ग्रस्त नहीं दिखाया गया है, बल्कि उन्हें उन्नत सभ्यता का पालन करने वाले, कला प्रेमी एवं सुसंस्कृत राजपुरुषों के रूप में दर्शाया गया है। वे लोग आर्य सम्यता को नहीं मानते थे, इसीलिए आर्य लोग उन्हें राक्षस कहा करते थे। वे प्राय: उनसे युद्ध करते थे और उन्हें नष्ट कर देते थे। इस पुराण ने सदाचार का वर्णन करते हुए सबसे बड़ा पाप कृतघ्नता को माना है। ब्रह्महत्या और गोहत्या का प्रायश्चित्त हो सकता है, परंतु उपकारी की प्रति कृतघ्न व्यक्ति के पाप का कोई प्रायश्चित्त नहीं है। 'वामन पुराण' में कहा गया है कि देवगण में भगवान जनार्दन सर्वश्रेष्ठ हैं। पर्वतों में शेषाद्रि, आयुधों में सुदर्शन चक्र, पक्षियों में गरुड़, सर्पों में शेषनाग, प्राकृतिक भूतों में पृथ्वी, नदियों में गंगा, जलजों में पद्म, तीर्थों में कुरुक्षेत्र, सरोवरों में मानसरोवर, पुष्पवनों में नन्दन वन, धर्म-नियमों में सत्य, यज्ञों में श्वमेध, तपस्वियों में कुम्भज ऋषि, समस्त आगमों में वेद, पुराणों में 'मत्स्य पुराण', स्मृतियों में 'मनुस्मृति' , तिथियों में दर्श अमावस्या, देवों में इन्द्र, तेज में सूर्य, नक्षत्रों में चन्द्र, धान्यों में अक्षत (चावल), द्विपदों में विप्र (ब्राह्मण) और चतुष्पदों में सिंह सर्वश्रेष्ठ होता है। यहाँ 'आत्मज्ञान' को ही सर्वज्ञानों में सर्वश्रेष्ठ ज्ञान स्वीकार किया गया है। धर्म का विवेचन करते हुए यह पुराण कहता है- किं तेषां सनेलैस्तीर्थेराश्रभैर्वा प्रयोजनम्। येषां चानन्मकं चित्तमात्मन्येव व्यवस्थिम्॥ अर्थात् जिनका अन्तर्मन (चित्त) व्यवस्थित अथवा संयमित है, उनको तीर्थों और आश्रमों की कोई आवश्यकता नहीं होती। उनका हृदय ही तीर्थ होता है। मन ही आश्रम होता है।

कूर्म पुराण-हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार यह माना जाता है कि विष्णु भगवान 'कूर्मावतार' अर्थात् कच्छप रूप में समुद्र मंथन के समय मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण करने के प्रसंग में राजा इन्द्रद्युम्न को ज्ञान, भक्ति और मोक्ष का उपदेश देते हैं। उसे ही लोमहर्षण सूत जी ने शौनकादि ऋषियों को नैमिषारण्य में सुनाया था। वही 'कूर्म पुराण' का रूप ग्रहण कर सका। कूर्म पुराण जिसमे 18000 कुल ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है जब की वर्तमान समय में मात्र (6000) ऋचायें- इश्लोक-मंत्र ही शेष है ।

कूर्म पुराण में चार संहिताएं हैं-

  1. ब्राह्मी संहिता,
  2. भागवती संहिता,
  3. शौरी संहिता और
  4. वैष्णवी संहिता। इन चारों संहिताओं में आज केवल ब्राह्मी संहिता ही प्राप्य उपलब्ध है। शेष संहिताएं उपलब्ध नहीं हैं। ब्राह्मी संहिता में पुराणों के प्राय: सभी लक्षण-सर्ग, प्रतिसर्ग, देवों और ऋषियों के वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित तथा अन्य धार्मिक कथाएं आदि उपलब्ध हैं। इस पुराण ने वैष्णवशैव और शाक्त-तीनों सम्प्रदायों को समन्वयात्मक रूप प्रस्तुत किया है। सभी को समान मान्यता दी है।
अन्य पुराणों की भांति 'कूर्म पुराण' में भी सृष्टि की उत्पत्ति 'ब्रह्म' से स्वीकार की गई है। सभी जड़-चेतन स्वरूपों में जीवन का अंश माना गया है और इस जीवन-अंश को ही ब्रह्म का अंश कहा गया है। जैसे-मेरू पर्वत की आयति और नियति दो कन्याएं थीं, जिनका विवाह धाता एवं विधाता से हुआ था। फिर उनकी भी सन्तानें हुईं। इस प्रकार जड़ पदार्थ को भी मानवीय रूप देकर पुराणकार ने उन्हें जीवित मनुष्य ही माना है। इसी सृष्टि से मानव जाति का भी विकास हुआ।भारतीय पुराणकारों को विशेषता रही है कि उन्होंने सभी जड़-चेतन स्वरूपों में जीवन का अंश मानकर उनमें परस्पर बन्धुत्व की भावना समाहित की है और उन्हें पूजनीय बना दिया है। सबसे पहले इस पुराण में समुद्र मंथन से उत्पन्न विष्णु की माया अथवा शक्ति 'लक्ष्मी' के प्रादुर्भाव का प्रसंग उठाकर उसकी स्तुति करने की बात कही गई है। तदुपरान्त विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा जी का जन्म होता है। फिर ब्रह्मा से उनके नौ मानस पुत्रों के जन्म का वृत्तान्त है। फिर वेदों में निहित ज्ञान की महिमा और वर्णाश्रम धर्म का विशद विवेचन है। यहाँ कूर्म रूप में विष्णु भगवान स्वयं ऋषियों से चारों आश्रमों का उल्लेख करके उनके दो-दो रूप बताते हैं। यथा-
  • ब्रह्मचर्य आश्रम के दो भेद- इस आश्रम में रहने वाले दो प्रकार के ब्रह्मचारी- 'उपकुवणिक' और 'नैष्टिक' होते हैं। जो ब्रह्मचारी विधिवत वेदों तथा अन्य शास्त्रों का अध्ययन करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है, वह 'उपकुवणिक ब्रह्मचारी' होता है और जो मनुष्य जीवनपर्यन्त गुरु के निकट रहकर ब्रह्मज्ञान का सतत अभ्यास करता है, वह 'नैष्टिक ब्रह्मचारी' कहलाता है।
  • गृहस्थाश्रम के दो भेद- गृहस्थाश्रम में रहने वाले व्यक्ति 'साधक' और 'उदासीन' कहलाते हैं। जो व्यक्ति अपनी गृहस्थी एवं परिवार के भरण-पोषण में लगा रहता है, वह 'साधक गृहस्थ' कहलाता है और जो देवगणों के ऋण, पितृगणों के ऋण तथा ऋषिगण के ऋण से मुक्त होकर निर्लिप्त भाव से अपनी पत्नी एवं सम्पत्ति का उपभोग करता है, वह 'उदासीन गृहस्थ' कहा जाता है।
  • वानप्रस्थ आश्रम के दो भेद- इसे दो रूपों 'तापस' और 'सांन्यासिक' में विभक्त किया गया है। जो व्यक्ति वन में रहकर हवन, अनुष्ठान तथा स्वाध्याय करता है, वह 'तापस वानप्रस्थी' कहलाता है और जो साधक कठोर तप से अपने शरीर को कृश एवं क्षीण कर लेता है तथा ईश्वराधना में निरन्तर लगा रहता है, उसे 'सांन्यासिक वानप्रास्थी' कहा जाता है।
  • सन्न्यास आश्रम के दो भेद- सन्न्यास आश्रम में रहने वाले व्यक्ति 'पारमेष्ठिक' तथा 'योगी' कहलाते हैं। नित्यप्रति योगाभ्यास द्वारा अपनी इन्द्रियों और मन को जीतने वाला तथा मोक्ष की कामना रखने वाला साधक 'पारमेष्ठिक संन्यासी' कहलाता है और जो व्यक्ति ब्रह्म का साक्षात्कार कर अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दिव्य स्वरूप का दर्शन करता है, वह 'योगी संन्यासी' कहा जाता है।
  • यहाँ पुराणकार ने निष्काम कर्म योग साधना; नारायण, विष्णुब्रह्मा और महादेव नामों की व्याख्या, चतुर्युग वर्णन, काल वर्णन, नौ प्रकार की सृष्टियों का वर्णन, मधु-कैटभ राक्षस की उत्पत्ति और उनके वध का दृष्टान्त, भगवान शिव के विविध रूपों तथा नामों की महिमा का वर्णन, शक्ति की उपासना का गूढ़, गहन तथा भावुक वर्णन, दक्ष कन्याओं द्वारा उत्पन्न सन्तति का वर्णन, नृसिंह अवतार लीला का वर्णन, भक्त प्रह्लाद का चरित्र, सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली, चन्द्र वंश की वंशावली, वाराणसी के विश्वेश्वर लिंग की महिमा, व्यास और जैमिनि ऋषि के मध्य धर्म सम्बन्धी संवादों का विवरण, स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर में जाने का वर्णन, मोक्ष वर्णन तथा पौराणिक भूगोल का विस्तृत उल्लेख किया है। 
  • इसके अलावा 'कूर्म पुराण' में सांख्य योग के चौबीस तत्त्वों, सदाचार के नियमों, गायत्री, महिमा, गृहस्थ धर्म, श्रेष्ठ सामाजिक नियमों, विविध संस्कारों, पितृकर्मों- श्राद्ध, पिण्डदान आदि की विधियों तथा चारों आश्रमों में रहते हुए आचार-विचारों का पालन करने का विस्तार से विवेचन किया गया है।
  • इस पुराण की गणना शैव पुराणों में की जाती है। किन्तु विष्णु की निन्दा अथवा उनके प्रभाव को कम करके इसमें नहीं आंका गया है। इसमें देवी माहात्म्य का भी व्यापक वर्णन है। सगुण और निर्गुण ब्रह्म की उपासना का सुन्दर और सारगर्भित विवेचन भी इसमें प्राप्त होता है।

मत्स्य पुराण-वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित 'मत्स्य पुराण' व्रत, पर्व, तीर्थ, दान, राजधर्म और वास्तु कला की दृष्टि से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुराण है। इस पुराण की श्लोक संख्या चौदह हज़ार है। इसे दो सौ इक्यानवे अध्यायों में विभाजित किया गया है। इस पुराण के प्रथम अध्याय में 'मत्स्यावतार' के कथा है। उसी कथा के आधार पर इसका मत्स्य पुराण नाम पड़ा है। 
प्रारम्भ में प्रलय काल में पूर्व एक छोटी मछली मनु महाराज की अंजलि में आ जाती है। वे दया करके उसे अपने कमण्डल में डाल लेते हैं। किन्तु वह मछली शनै:-शनैष् अपना आकार बढ़ाती जाती है। सरोवर और नदी भी उसके लिए छोटी पड़ जाती है। तब मनु उसे सागर में छोड़ देते हैं और उससे पूछते हैं कि वह कौन है।भगवान मत्स्य मनु को बताते हैं कि प्रलय काल में मेरे सींग में अपनी नौका को बांधकर सुरक्षित ले जाना और सृष्टि की रचना करना। वे भगवान के 'मत्स्य अवतार' को पहचान कर उनकी स्तुति करते हैं। मनु प्रलय काल में मत्स्य भगवान द्वारा अपनी सुरक्षा करते हैं। फिर ब्रह्मा द्वारा मानसी सृष्टि होती है। किन्तु अपनी उस सृष्टि का कोई परिणाम न देखकर दक्ष प्रजापति मैथुनी-सृष्टि से सृष्टि का विकास करते हैं। इस पुराण में 'राजधर्म' और 'राजनीति' का अत्यन्त श्रेष्ठ वर्णन है। इस दृष्टि से 'मत्स्य पुराण' काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। प्राचीन काल में राजा का विशेष महत्त्व होता था। इसीलिए उसकी सुरक्षा का बहुत ध्यान रखना पड़ता था। क्योंकि राजा की सुरक्षा से ही राज्य की सुरक्षा और श्रीवृद्धि सम्भव हो पाती थी। इस दृष्टि से इस पुराण में बहुत व्यावहारिक ज्ञान दिया गया है। 'मत्स्य पुराण' कहता है कि राजा को अपनी सुरक्षा की दृष्टि से अत्यन्त शंकालु तथा सतर्क रहना चाहिए। बिना परीक्षण किए वह भोजन कदापि न करे। शय्या पर जाने से पूर्व अच्छी प्रकार से देख ले कि उसमें कोई विषधर आदि तो नहीं छोड़ा गया है। उसे कभी भीड़ या जलाशय में अकेले प्रवेश नहीं करना चाहिए। अनजान अश्व या हाथी पर नहीं चढ़ना चाहिए। किसी अनजान स्त्री से सम्बन्ध नहीं बनाने चाहिए।इस पुराण में छह प्रकार के दुर्गों- धनु दुर्ग, मही दुर्ग, नर दुर्ग, वार्क्ष दुर्ग, जल दुर्ग औ गिरि दुर्ग के निर्माण की बात कही गई है। आपातकाल के लिए उसमें सेना और प्रजा के लिए भरपूर खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र एवं औषधियों का संग्रह करके रखना चाहिए। उस काल में भी राज्य का जीवन आराम का नहीं होता था। राजा को हर समय काक दृष्टि से सतर्क रहना पड़ता था। इसीलिए उसे विश्वसनीय कर्मचारियों का चयन करना पड़ता था। उनसे मधुर व्यवहार बनाना पड़ता था।

तथा च मधुराभाषी भवेत्कोकिलवन्नृप:। काकशंकी भवेन्नित्यमज्ञातवसतिं वसेत्॥अर्थात् राजा को कोयल के समान मधुर वचन बोलने वाला होना चाहिए। जो पुर या बस्ती अज्ञात है, उसमें उसे निवास करना चाहिए। उसे सदैव कौए के समान शंकायुक्त रहना चाहिए। भाव यही है कि राजा को एकाएक किसी पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए। उसे सदैव अपनी प्रजा का विश्वास और समर्थन प्राप्त करते रहना चाहिए। गुप्तचरों द्वारा राज्य की गतिविधियों का पता लगाते रहना चाहिए। 'मत्स्य पुराण' में पुरुषार्थ पर विशेष बल दिया गया है। जो व्यक्ति आलसी होता है और कर्म नहीं करता, वह भूखों मरता है। भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला व्यक्ति कभी भी जीवन में सफल नहीं हो सकता। श्रीवृद्धि तथा समृद्धि उससे सदैव रूठी रहती है। इस पुराण में 'स्थापत्य कला' का भी सुन्दर विवेचन किया गया है। इसमें उस काल के अठारह वास्तुशिल्पियों के नाम तक दिए गए हैं। जिनमें विश्वकर्मा और मय दानव का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें बताया गया है कि सबसे उत्तम गृह वह होता है, जिसमें चारों ओर दरवाज़े और दालान होते हैं। उसे 'सर्वतोभद्र' नाम दिया गया है। देवालय और राजनिवास के लिए ऐसा ही भवन प्रशस्त माना जाता है। इसी प्रकार 'नन्द्यावर्त्त', 'वर्द्धमान' , 'स्वस्तिक' तथा 'रूचक' नामक भवनों का उल्लेख भी किया गया है। राजा के निवास गृह पांच प्रकार के बताए गए हैं। सर्वोत्तम गृह की लम्बाई एक सौ साठ हाथ (54 गज) होती है। उस काल में आज की भांति नए घर में प्रवेश हेतु शुभ मुहूर्त्तो की गणना पर पूरा विचार किया जाता था। तभी लोक गृह प्रवेश करते थे। 'मत्स्य पुराण' में प्राकृतिक शोभा का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है। हिमालय पर्वत, कैलाश पर्वत, नर्मदा एवं वाराणसी के शोभा-वर्णन में भाषा और भाव का अति सुन्दर संयोग हुआ है- तपस्तिशरणं शैलं कामिनामतिदुर्लभम्। मृगैर्यथानुचरितन्दन्ति भिन्नमहाद्रुमम्॥ अर्थात् यह हिमालय पर्वत तपस्वियों की पूर्णतया रक्षा करने वाला है। यह काम-भावना रखने वालों के लिए अत्यन्त दुर्लभ है। यह हाथियों के समान महान् और विशाल वृक्षों से युक्त है। मृगों की भांति अनुचरित है अर्थात् जिस प्रकार मृगों के सौन्दर्य का वर्णन नहीं किया जा सकता, उसकी प्रकार हिमालय की शोभा का भी वर्णन करना बड़ा कठिन है। इस पुराण का सबसे महत्त्वपूर्ण आख्यान 'सावित्री सत्यवान' की कथा है। पतिव्रता स्त्रियों में सावित्री की गणना सर्वोपरि की जाती है। सावित्री अपनी लगन, दूरदृष्टि, बुद्धिमत्ता और पतिप्रेम के कारण अपने मृत पति को यमराज के पाश से भी छुड़ा लाने में सफल हो जाती है। इसके अतिरिक्त 'मत्स्य पुराण' में देवी और विष्णु की उपासना, वाराणसी एवं नर्मदा नदी का माहात्म्य, मंगल-अमंगल सूचक शकुन, स्वप्न विचार, अंग फड़कने का सम्भावित फल; व्रत, तीर्थ और दान की महिमा आदि का वर्णन अनेकानेक लोकोपयोगी आख्यानों के माध्यम से किया गया है। 'नृसिंह अवतार' की कथा, भक्त प्रह्लाद को विष्णु के विराट रूप का दर्शन तथा देवासुर संग्राम में दोनों ओर के वीरों का वर्णन पुराणकार की कल्पना का सुन्दर परिचय देता है। इस पुराण का काव्य तत्त्व भी अति सुन्दर है। वर्णन शैली अत्यन्त सहज है। अनेक स्थलों पर शब्द व्यंजना का सौन्दर्य देखते ही बनता है। इस पुराण की एक विशेषता और भी है। पुराणकार को आयुर्वेद चिकित्सा का अच्छा ज्ञान प्राप्त था, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि इसमें औषधियों और जड़ी-बूटियों की एक लम्बी सूची दी गई है। साथ ही साथ यह भी बताया गया है कि कौन-सी दवा किस व्याधि के काम आती है। इसका वर्णन विस्तार के साथ इस पुराण में किया गया है। देवताओं की मूर्तियों के निर्माण की पूरी प्रकिया और उनके आकार-प्रकार का पूरा ब्योरा 'मत्स्य पुराण' में उपलब्ध होता है। प्रत्येक देवता की मूर्ति के अलग-अलग लक्षण बताए गए हैं। साथ ही उनके विशेष चिह्नों का विवरण भी दिया गया है। एक जगह तो यहाँ तक कहा गया है कि मूर्ति की कटि अठारह अंगुल से अधिक नहीं होनी चाहिए। स्त्री-मूर्ति की कटि बाईस अंगुल तथा दोनों स्तनों की माप बारह-बारह अंगुल होनी चाहिए। इसी प्रकार शरीर के प्रत्येक भाग की माप बड़ी बारीकी से प्रस्तुत की गई है। इससे पुराणकार की सूक्ष्म परख और कलात्मक दृष्टि का पता चलता है। वस्तुत: कला, धर्म, राजनीति, दान-पुण्य, स्थापत्य, शिल्प और काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से यह एक उत्तम पुराण है।

गरुड़ पुराण हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथों में से एक है। वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित 'गरुड़ पुराण' 'सनातन धर्म' में मृत्यु के बाद सद्गति प्रदान करने वाला माना जाता है। इसलिये सनातन हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद 'गरुड़ पुराण' के श्रवण का प्रावधान है। इस पुराण के अधिष्ठातृ देव भगवान विष्णु हैं। अठारह पुराणों में 'गरुड़ महापुराण' का अपना एक विशेष महत्व है। क्योंकि इसके देव स्वयं विष्णु माने जाते हैं, इसीलिए यह वैष्णव पुराण है। गरुड़ पुराण के अनुसार हमारे कर्मों का फल हमें हमारे जीवन में तो मिलता ही है, परंतु मरने के बाद भी कार्यों का अच्छा-बुरा फल मिलता है। इसी वजह से इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए घर के किसी सदस्य की मृत्यु के बाद का अवसर निर्धारित किया गया, ताकि उस समय हम जन्म-मृत्यु से जुड़े सभी सत्य जान सके और मृत्यु वश बिछडऩे वाले सदस्य का दु:ख कम हो सके। 
गरुड़ पुराण में 19000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
वास्तविक तथ्य यह है कि 'गरुड़ पुराण' में भगवान विष्णु की भक्ति का विस्तार से वर्णन मिलता है। विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन ठीक उसी प्रकार इस पुराण में प्राप्त होता है, जिस प्रकार 'श्रीमद्भागवत' में उपलब्ध होता है। आरम्भ में मनु से सृष्टि की उत्पत्ति, ध्रुव चरित्र और बारह आदित्यों की कथा प्राप्त होती है। उसके उपरान्त सूर्य और चन्द्र ग्रहों के मन्त्र, शिव-पार्वती मन्त्र, इन्द्र से सम्बन्धित मन्त्र, सरस्वती के मन्त्र और नौ शक्तियों के विषय में विस्तार से बताया गया है। 'गरुड़ पुराण' में उन्नीस हज़ार श्लोक कहे जाते हैं, किन्तु वर्तमान समय में कुल सात हज़ार श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस पुराण को दो भागों में रखकर देखना चाहिए। पहले भाग में विष्णु भक्ति और उपासना की विधियों का उल्लेख है तथा मृत्यु के उपरान्त प्राय: 'गरुड़ पुराण' के श्रवण का प्रावधान है। दूसरे भाग में 'प्रेतकल्प' का विस्तार से वर्णन करते हुए विभिन्न नरकों में जीव के पड़ने का वृत्तान्त है। इसमें मरने के बाद मनुष्य की क्या गति होती है, उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है, प्रेत योनि से मुक्त कैसे पाई जा सकती है, श्राद्ध और पितृ कर्म किस तरह करने चाहिए तथा नरकों के दारुण दु:ख से कैसे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है आदि विषयों का विस्तारपूर्वक वर्णन प्राप्त होता है। इस पुराण में महर्षि कश्यप और तक्षक नाग को लेकर एक सुन्दर उपाख्यान दिया गया है। ऋषि के शाप से जब राजा परीक्षित को तक्षक नाग डसने जा रहा था, तब मार्ग में उसकी भेंट कश्यप ऋषि से हुई। तक्षक ने ब्राह्मण का वेश धरकर उनसे पूछा कि- "वे इस तरह उतावली में कहाँ जा रहे हैं?" इस पर कश्यप ने कहा कि- "तक्षक नाग महाराज परीक्षित को डसने वाला है। मैं उनका विष प्रभाव दूर करके उन्हें पुन: जीवन दे दूँगा।" यह सुनकर तक्षक ने अपना परिचय दिया और उनसे लौट जाने के लिए कहा। क्योंकि उसके विष-प्रभाव से आज तक कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं बचा था। तब कश्यप ऋषि ने कहा कि- "वे अपनी मन्त्र शक्ति से राजा परीक्षित का विष-प्रभाव दूर कर देंगे।" इस पर तक्षक ने कहा कि- "यदि ऐसी बात है तो आप इस वृक्ष को फिर से हरा-भरा करके दिखाइए। मैं इसे डसकर अभी भस्म किए देता हूँ।" तक्षक नाग ने निकट ही स्थित एक वृक्ष को अपने विष के प्रभाव से तत्काल भस्म कर दिया।

इस पर कश्यप ऋषि ने उस वृक्ष की भस्म एकत्र की और अपना मन्त्र फूंका। तभी तक्षक ने आश्चर्य से देखा कि उस भस्म में से कोंपल फूट आईं और देखते ही देखते वह हरा-भरा वृक्ष हो गया। हैरान तक्षक ने ऋषि से पूछा कि- "वे राजा का भला करने किस कारण से जा रहे हैं?" ऋषि ने उत्तर दिया कि उन्हें वहाँ से प्रचुर धन की प्राप्ति होगी। इस पर तक्षक ने उन्हें उनकी सम्भावना से भी अधिक धन देकर वापस भेज दिया। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि- "कश्यप ऋषि का यह प्रभाव 'गरुड़ पुराण' सुनने से ही बड़ा था।" 'गरुड़ पुराण' के दूसरे अध्याय में यह वर्णन मिलता है, इसके अनुसार- गरुड़ ने कहा- हे केशव! यमलोक का मार्ग किस प्रकार दुखदायी होता है। पापी लोग वहाँ किस प्रकार जाते हैं, मुझे बताइये। भगवान बोले- हे गरुड़! महान् दु:ख प्रदान करने वाले यममार्ग के विषय में मैं तुमसे कहता हूँ, मेरा भक्त होने पर भी तुम उसे सुनकर काँप उठोगे। यममार्ग में वृक्ष की छाया नहीं है, अन्न आदि भी नहीं है, वहाँ कहीं जल भी नहीं है, वहाँ प्रलय काल की भांति बारह सूर्य तपते हैं। उस मार्ग से जाता हुआ पापी कभी बर्फीली हवा से पीडि़त होता है तो कभी कांटे चुभते हैं। कभी महाविषधर सर्पों द्वारा डसा जाता है, कहीं अग्नि से जलाया जाता है, कहीं सिंहों, व्याघ्रों और भयंकर कुत्तों द्वारा खाया जाता है, कहीं बिच्छुओं द्वारा डसा जाता है। इसके बाद वह भयंकर 'असिपत्रवन' नामक नरक में पहुँचता है, जो दो हज़ार योजन के विस्तार वाला है। यह वन कौओं, उल्लुओं, गीधों, सरघों तथा डॉंसों से व्याप्त है। उसमें चारों ओर दावाग्नी है। वह जीव कहीं अंधे कुएं में गिरता है, कहीं पर्वत से गिरता है, कहीं छुरे की धार पर चलता है, कहीं कीलों के ऊपर चलता है, कहीं घने अन्धकार में गिरता है। कहीं उग्र जल में गिरता है, कहीं जोंकों से भरे हुए कीचड़ में गिरता है। कहीं तपी हुई बालुका से व्याप्त और धधकते ताम्रमय मार्ग, कहीं अंगार राशि, कहीं अत्याधिक धुएं से भरे मार्ग पर उसे चलना पड़ता है। कहीं अंगार वृष्टि, कहीं बिजली गिरने, शिलावृष्टि, कहीं रक्त की, कही शस्त्र की और कहीं गर्म जल की वृष्टि होती है। कहीं खारे कीचड़ की वृष्टि होती है। कहीं मवाद, रक्त तथा विष्ठा से भरे हुए तलाव हैं। यममार्ग के बीचो-बीच अत्यन्त उग्र और घोर 'वैतरणी नदी' बहती है। वह देखने पर दुखदायनी है। उसकी आवाज़ भय पैदा करने वाली है। वह सौ योजन चौड़ी और पीब तथा रक्त से भरी है। हड्डियों के समूह से उसके तट बने हैं। यह विशाल घड़ियालों से भरी है। हे गरुड़! आए पापी को देखकर वह नदी ज्वाला और धूम से भरकर कड़ाह में खौलते घी की तरह हो जाती है। यह नदी सूई के समान मुख वाले भयानक कीड़ों से भरी है। वज्र के समान चोंच वाले बडे़-बड़े गीध हैं। इसके प्रवाह में गिरे पापी 'हे भाई', 'हा पुत्र', 'हा तात'। कहते हुए विलाप करते हैं। भूख-प्यास से व्याकुल हो पापी रक्त का पान करते हैं। बहुत से बिच्छु तथा काले सांपों से व्याप्त उस नदी के बीच में गिरे हुए पापियों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है। उसके सैंकड़ों, हज़ारों भंवरों में पड़कर पापी पाताल में चले जते हैं, क्षणभर में ही ऊपर चले आते हैं। कुछ पापी पाश में बंधे होते हैं। कुछ अंकुश में फंसा कर खींचे जाते हैं और कुछ कोओं द्वारा खींचे जाते हैं। वे पापी गरदन हाथ पैरों में जंजीरों से बंधे होते हैं। उनकी पीठ पर लोहे के भार होते हैं। अत्यंत घोर यमदूतों द्वारा मुगदरों से पीटे जाते हुए रक्त वमन करते हैं तथा वमन किये रक्त को पीते हैं। ---इस प्रकार सत्रह दिन तक वायु वेग से चलते हुए अठाहरवें दिन वह प्रेत सौम्यपुर में जाता है।

'गरुड़ पुराण' का यह वर्णन जाहिर है कि मनुष्यों को धर्माचरण और पाप से दूर रखने के लिए ही रचा गया होगा। 'मृत्यु के बाद क्या होता है?' यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका उत्तर जानने की इच्छा सभी को होती है। सभी अपने-अपने तरीक़े से इसका उत्तर भी देते हैं। 'गरुड़ पुराण' भी इसी प्रश्न का उत्तर देता है। जहाँ धर्म शुद्ध और सत्य आचरण पर बल देता है, वहीं पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य तथा इनके शुभ-अशुभ फलों पर भी विचार करता है। वह इसे तीन अवस्थाओं में विभक्त कर देता है-

  1. प्रथम अवस्था में मानव को समस्त अच्छे-बुरे कर्मों का फल इसी जीवन में प्राप्त होता है।
  2. दूसरी अवस्था में मृत्यु के उपरान्त मनुष्य विभिन्न चौरासी लाख योनियों में से किसी एक में अपने कर्मानुसार जन्म लेता है।
  3. तीसरी अवस्था में वह अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक में जाता है। हिन्दू धर्म के शास्त्रों में उपर्युक्त तीन प्रकार की अवस्थाओं का खुलकर विवेचन हुआ है। जिस प्रकार चौरासी लाख योनियाँ हैं, उसी प्रकार चौरासी लाख नरक भी हैं, जिन्हें मनुष्य अपने कर्मफल के रूप में भोगता है। 'गरुड़ पुराण' ने इसी स्वर्ग-नरक वाली व्यवस्था को चुनकर उसका विस्तार से वर्णन किया है। इसी कारण भयभीत व्यक्ति अधिक दान-पुण्य करने की ओर प्रवृत्त होता है। 
  4. 'प्रेत कल्प' में कहा गया है कि नरक में जाने के पश्चात् प्राणी प्रेत बनकर अपने परिजनों और सम्बन्धियों को अनेकानेक कष्टों से प्रताड़ित करता रहता है। वह परायी स्त्री और पराये धन पर दृष्टि गड़ाए व्यक्ति को भारी कष्ट पहुंचाता है।
  5. जो व्यक्ति दूसरों की सम्पत्ति हड़प कर जाता है, मित्र से द्रोह करता है, विश्वासघात करता है, ब्राह्मण अथवा मन्दिर की सम्पत्ति का हरण करता है, स्त्रियों और बच्चों का संग्रहीत धन छीन लेता है, परायी स्त्री से व्यभिचार करता है, निर्बल को सताता है, ईश्वर में विश्वास नहीं करता, कन्या का विक्रय करता है; माता, बहन, पुत्री, पुत्र, स्त्री, पुत्रबधु आदि के निर्दोष होने पर भी उनका त्याग कर देता है, ऐसा व्यक्ति प्रेत योनि में अवश्य जाता है। उसे अनेकानेक नारकीय कष्ट भोगना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को जीते-जी अनेक रोग और कष्ट घेर लेते हैं। व्यापार में हानि, गर्भनाश, गृह कलह, ज्वर, कृषि की हानि, सन्तान मृत्यु आदि से वह दुखी होता रहता है अकाल मृत्यु उसी व्यक्ति की होती है, जो धर्म का आचारण और नियमों को पालन नहीं करता तथा जिसके आचार-विचार दूषित होते हैं। उसके दुष्कर्म ही उसे 'अकाल मृत्यु' में धकेल देते हैं। 
  6. 'गरुड़ पुराण' में प्रेत योनि और नरक में पड़ने से बचने के उपाय भी सुझाए गए हैं। उनमें सर्वाधिक प्रमुख उपाय दान-दक्षिणा, पिण्डदान तथा श्राद्ध कर्म आदि बताए गए हैं।
  7. सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रेत कल्प के अतिरिक्त इस पुराण में 'आत्मज्ञान' के महत्त्व का भी प्रतिपादन किया गया है। परमात्मा का ध्यान ही आत्मज्ञान का सबसे सरल उपाय है। उसे अपने मन और इन्द्रियों पर संयम रखना परम आवश्यक है। इस प्रकार कर्मकाण्ड पर सर्वाधिक बल देने के उपरान्त 'गरुड़ पुराण' में ज्ञानी और सत्यव्रती व्यक्ति को बिना कर्मकाण्ड किए भी सद्गति प्राप्त कर परलोक में उच्च स्थान प्राप्त करने की विधि बताई गई है।

समस्त महापुराणों में 'ब्रह्माण्ड पुराण' अन्तिम पुराण होते हुए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। समस्त ब्रह्माण्ड का सांगोपांग वर्णन इसमें प्राप्त होने के कारण ही इसे यह नाम दिया गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से इस पुराण का विशेष महत्त्व है। विद्वानों ने 'ब्रह्माण्ड पुराण' को वेदों के समान माना है। छन्द शास्त्र की दृष्टि से भी यह उच्च कोटि का पुराण है। इस पुराण में वैदर्भी शैली का जगह-जगह प्रयोग हुआ है। उस शैली का प्रभाव प्रसिद्ध संस्कृत कवि कालिदास की रचनाओं में देखा जा सकता है। यह पुराण 'पूर्व', 'मध्य' और 'उत्तर'- तीन भागों में विभक्त है। पूर्व भाग में प्रक्रिया और अनुषंग नामक दो पाद हैं। मध्य भाग उपोद्घात पाद के रूप में है जबकि उत्तर भाग उपसंहार पाद प्रस्तुत करता है। इस पुराण में बारह हज़ार श्लोक और एक सौ छप्पन अध्याय हैं।
पूर्व भाग में मुख्य रूप से नैमिषीयोपाख्यान, हिरण्यगर्भ-प्रादुर्भाव, देव-ऋषि की सृष्टि, कल्पमन्वन्तर तथा कृतयुगादि के परिणाम, रुद्र सर्ग, अग्नि सर्ग, दक्ष तथा शंकर का परस्पर आरोप-प्रत्यारोप और शाप, प्रियव्रत वंश, भुवनकोश, गंगावतरण तथा खगोल वर्णन में सूर्य आदि ग्रहोंनक्षत्रों, ताराओं एवं आकाशीय पिण्डों का विस्तार से विवेचन किया गया है। इस भाग में समुद्र मंथनविष्णु द्वारा लिंगोत्पत्ति आख्यान, मन्त्रों के विविध भेद, वेद की शाखाएं और मन्वन्तरोपाख्यान का उल्लेख भी किया गया है। मध्य भाग में श्राद्ध और पिण्ड दान सम्बन्धी विषयों का विस्तार के साथ वर्णन है। साथ ही परशुराम चरित्र की विस्तृत कथा, राजा सगर की वंश परम्परा, भगीरथ द्वारा गंगा की उपासना, शिवोपासना, गंगा को पृथ्वी पर लाने का व्यापक प्रसंग तथा सूर्य एवं चन्द्र वंश के राजाओं का चरित्र वर्णन प्राप्त होता है। 
  • उत्तर भाग में भावी मन्वन्तरों का विवेचन, त्रिपुर सुन्दरी के प्रसिद्ध आख्यान जिसे 'ललितोपाख्यान' कहा जाता है, का वर्णन, भंडासुर उद्भव कथा और उसके वंश के विनाश का वृत्तान्त आदि हैं।
  • 'ब्रह्माण्ड पुराण' और 'वायु पुराण' में अत्यधिक समानता प्राप्त होती है। इसलिए 'वायु पुराण' को महापुराणों में स्थान प्राप्त नहीं है।
  • 'ब्रह्माण्ड पुराण' का उपदेष्टा प्रजापति ब्रह्मा को माना जाता है। इस पुराण को पाप नाशक, पुण्य प्रदान करने वाला और सर्वाधिक पवित्र माना गया है। यह यश, आयु और श्रीवृद्धि करने वाला पुराण है। इसमें धर्म, सदाचार, नीति, पूजा-उपासना और ज्ञान-विज्ञान की महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है। 
  • इस पुराण के प्रारम्भ में बताया गया है कि गुरु अपना श्रेष्ठ ज्ञान सर्वप्रथम अपने सबसे योग्य शिष्य को देता है। यथा-ब्रह्मा ने यह ज्ञान वसिष्ठ को, वसिष्ठ ने अपने पौत्र पराशर को, पराशर ने जातुकर्ण्य ऋषि को, जातुकर्ण्य ने द्वैपायन को, द्वैपायन ऋषि ने इस पुराण को ज्ञान अपने पांच शिष्यों- जैमिनिसुमन्तुवैशम्पायनपेलव और लोमहर्षण को दिया। लोमहर्षण सूत जी ने इसे भगवान वेदव्यास से सुना। फिर नैमिषारण्य में एकत्रित ऋषि-मुनियों को सूत जी ने इस पुराण की कथा सुनाई।
  • पुराणों के विविध पांचों लक्षण 'ब्रह्माण्ड पुराण' में उपलब्ध होते हैं। कहा जाता है कि इस पुराण का प्रतिपाद्य विषय प्राचीन भारतीय ऋषि जावा द्वीप वर्तमान में इण्डोनेशिया लेकर गए थे। इस पुराण का अनुवाद वहां के प्राचीन कवि-भाषा में किया गया था जो आज भी उपलब्ध है। ब्रह्माण्ड पुराण' में भारतवर्ष का वर्णन करते हुए पुराणकार इसे 'कर्मभूमि' कहकर सम्बोधित करता है। यह कर्मभूमि भागीरथी गंगा के उद्गम स्थल से कन्याकुमारी तक फैली हुई है, जिसका विस्तार नौ हज़ार योजन का है। इसके पूर्व में किरात जाति और पश्चिम में म्लेच्छ यवनों का वास है। मध्य भाग में चारों वर्णों के लोग रहते हैं। इसके सात पर्वत हैं। गंगासिन्धुसरस्वतीनर्मदाकावेरीगोदावरी आदि सैकड़ों पावन नदियां हैं। यह देश कुरुपांचालकलिंगमगधशाल्वकौशल, केरल, सौराष्ट्र आदि अनेकानेक जनपदों में विभाजित है। यह आर्यों की ऋषिभूमि है। काल गणना का भी इस पुराण में उल्लेख है। इसके अलावा चारों युगों का वर्णन भी इसमें किया गया है। इसके पश्चात् परशुराम अवतार की कथा विस्तार से दी गई है। राजवंशों का वर्णन भी अत्यन्त रोचक है। राजाओं के गुणों-अवगुणों का निष्पक्ष रूप से विवेचन किया गया है। राजा उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव का चरित्र दृढ़ संकल्प और घोर संघर्ष द्वारा सफलता प्राप्त करने का दिग्दर्शन कराता है। गंगावतरण की कथा श्रम और विजय की अनुपम गाथा है। कश्यपपुलस्त्यअत्रिपराशर आदि ऋषियों का प्रसंग भी अत्यन्त रोचक है। विश्वामित्र और वसिष्ठ के उपाख्यान काफ़ी रोचक तथा शिक्षाप्रद हैं।

सनातन के ये सत्य वेद और पुराण सम्पूर्ण मानवता, श्रृष्टि के कल्याण के लिए ईश्वर द्वारा प्रदत्त अनमोल मणि (उपहार) है जिसे पाने गृहण-श्रवण करने और आत्म सात करने का अर्थ ही जीवन का सार परम आनंद और मोक्ष प्राप्ति व ईश्वर के प्रकाश पुंज में स्वयं को विलीन करने का सहज प्रशाद है जिसे गृहण करने बाला परम सौभाग्यशाली होता है ।
फिर सनातन की सत्यत को कौन ललकार सकता है…?
फिर सनातन कमजोर और रुग्ण कैसे ही सकता है…?
सनातन की शक्ति में सकल ब्रह्माण्ड की शक्ति समाहित है जिसे पहचानने और पाने की जरूरत है ॥

11 मिनट में 4 वेद और 18 पुराण के सम्पूर्ण 401016 ऋचायें- इश्लोक- मंत्रों के उच्चारण
और मात्र एक मिनट में 1375 करोड़ बार जय श्री राम का आत्मिक उद्घोष होगा ।
ऐसा भव्य और दिव्या हो जन्म भूमि में प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन विश्व रिकॉर्ड से गुंजायमान होगा पूरा ब्रह्माण्ड
अखिल भारत हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय महासचिव देवेन्द्र पाण्डेय द्वारा 11 बज कर 11 मिनट पर दिनांक 16/06/2023 को प्रधानमंत्री मा. नरेन्द्र मोदी जी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मा. योगी आदित्य नाथ जी को राम जन्मभूमि में प्रभु श्री राम जी की प्राण प्रतिष्ठा को अलौकिक और विश्व व्यापी विश्व रिकॉर्ड बनाने का सुझाव पत्र भेजा गया है । दिनांक 29/06/2023 को प्रधानमंत्री मा. नरेन्द्र मोदी जी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मा. योगी आदित्य नाथ जी को 10 बज कर 45 मिनट पर पुनः पत्र भेजा गया है ।




सनातन मान्यता अनुशार हमारे चार वेद है,
ऋग्वेद जिसमे 10588 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
यजुर्वेद जिसमे 1976 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
सामवेद जिसमे 1875 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
अथर्ववेद जिसमे 5977 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
अर्थात् चरो वेदों में कुल 20416 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।

इसी प्रकार सनातन धर्म के मूल आधार 18 पुराण है ।
ब्रह्म पुराण में 10000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
पद्म पुराण में 55000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
बिष्णु पुराण में 23000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है,
जब की वर्तमान समय में मात्र (7000) ऋचायें- इश्लोक-मंत्रही शेष है ।
वायु पुराण में 11000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
भागवत पुराण में 18000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
नारद पुराण में 25000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
मार्कण्डेय पुराण में 9000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
अग्नि पुराण में 21000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है,
जिसमे से सिर्फ़ 12000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र ही शेष है ।
भविष्य पुराण में 14500 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
ब्रह्मवर्त पुराण में 18000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
शिव पुराण का पूरक लिंग पुराण है, जिसे प्रथक पुराण की संज्ञा दी गई है,
शिव पुराण में 24000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
लिंग पुराण में 11000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
वराह पुराण में 24000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
स्कंद पुराण में 81100 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
वामन पुराण में 10000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
कूर्म पुराण जिसमे 18000 कुल ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है,
जब की वर्तमान समय में मात्र (6000) ऋचायें- इश्लोक-मंत्र ही शेष है ।
मत्स्य पुराण जिसमे 14000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
गरुड़ पुराण में 19000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।
अर्थात् 18 पूरणों में वर्तमान समय में कुल 380600 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है ।

चरो वेदों में कुल 20416 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है । 18 पूरणों में वर्तमान समय में कुल 380600 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र है । अर्थात् चार वेद और 18 पुराणों को मिलाकर कुल 401016 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र का उच्चार राम जन्मभूमि में प्रभु श्री राम की प्राण-प्रतिष्ठा के समय करने का विधान है ।
भारत के 36 हजार विद्वान वेदाचार्यो के द्वारा मात्र 11 मिनट में सम्पूर्ण वेदों और पूरणों के 401016 ऋचायें- इश्लोक-मंत्र के उच्चारण से विश्व रिकॉर्ड तो बनेगा ही यह अद्भुत-अद्युतीय होगा
साथ ही सम्पूर्ण विश्व में रहने बाले भारतीय और भारत के समस्त सनातनी जन निर्धारित समय (प्राण प्रतिष्ठा) के साथ ही जो जहां है सम्पूर्ण विश्व में मात्र एक मिनट तक जय श्री राम का उद्घोष करे तो एक व्यक्ति एक मिनट में कम से कम ( आराम से ) 11 बार जय श्री राम बोल सकता है । अर्थात् 125 करोड़ सनातनी एक मिनट में 11 बार जय श्री राम बोलेगे तो 1375 करोड़ बार जय श्री राम का आत्मिक उद्घोष होगा । जय श्री राम के जय कारे के साथ सम्पूर्ण विश्व का वातावरण पवित्र होगा और सनातन भारत सवाल होकर पुनः अपने मजबूत स्थापत्व की और अग्रसर होगा । यदि राजनीति ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर भाई मोदी जी और मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ जी को प्रभावित नही किया जन्मभूमि में प्रभु श्री राम की प्राण-प्रतिष्ठा में राष्ट्रनीति और धर्मनीति का सम्मान हुआ तो मुझे पूर्ण विश्वास है यह उत्सव अद्वतीय होगा-अलौकिक होगा जिसका स्मरण हजारो वर्षों तक गौरव गाथा बनकर सनातन की शक्ति का प्रेरणा आधार होगा, मेरी आत्मा, मेरा मन कहता है ऐसा ही होगा ॥


यह मेरा प्रयास जो धर्म, वेद, पुराण, सभ्यता, संस्कार, विश्वाश, आत्म ज्ञान, मानवीय कर्तव्यों, राष्ट्रीय हित, प्रखर दृढ़ता, शक्ति और साधना के साथ देश को गौरान्वित करेगा ।
अखिल, अखण्ड, अजेय भारत
सबल, सम्पन्न, सचेत भारत
के निर्माण में नींव का पत्थर सावित होगा ॥

मैं कर्म पाथ की चरण रज-मुझे लोभ ना भय कोई । पवित्र मन का आत्मीय यत्न जो भारत को भरत भूमि बनाने समर्पित है, मेरा तन,मन, जीवन-प्राण न्योछावर है ।
मेरा यत्न है देश के स्वाभिमान को जागृत करने का, यत्न है देशभक्त और सपूत व जिन्दा हिंदुओ की ललकार का ।यत्न है भारत के पुनः शृंगार का, यत्न है आर्यावर्त के वैभव की पुनः स्थापना का ।
जयतु जयतु जय जय हिन्दू राष्ट्रम्

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