शनिवार, 6 मई 2023

       हिंदुत्व के रक्षक नहीं समाज के भक्षक 
मोहन भागवत शिखंडी और भाजपा भाष्मासुर

जब DNA अर्थात् लहूँ की पवित्रता ही ना रही तो चरित्य और राष्ट्र - समाज के गर्व व गौरव की आशा का प्रश्न ही नहीं उठता । जहां पवित्र, सत्यता, संघर्ष, समर्पण, राष्ट्रीयता और धर्म संदेहास्पद होते है वहाँ भरोषा नहीं धोखा होना स्वाभाविक है । जिन्हें मैंने शिखंडी कहा उनका आँकलन आप को स्वयं को करना है ( शिखंडी इस्त्री के रूप में पैदा हुआ बाद में पुरुष बना उसके अंदर पुरषत्व नहीं था इस कारण पत्नी से दूरी हुई और पुत्र भी पैदा नहीं हुए , यही शिखंडी भीष्मपितामह की मृत्यु का कारण बना था ) और जिन्हें भस्मासुर कहा उनकी सत्यता का परीक्षण निस्पक्ष हो तो ही राष्ट्र के साथ न्याय सम्भव है ( शिव की भक्ति से भष्मासुर को बारदान मिला की बह जिसके सर पर हांथ रखेगा बह भष्म हो जाएगा , भष्मासुर ने इस बारदान से दुष्टों का विनाश नहीं किया बल्कि बारदान देने बाले शिव को ही भष्म करने लगा था ।) 

सत्य को जानना ज़रूरी है फिर उसे स्वीकार करने और ना करने की स्वतंत्रता
आप के स्वयं के विवेक पर निर्भर करती है । 

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आज वास्तव में स्वयं की सेवा तक ही सीमित हो कर रहगया है । कभी संघ का परिचय हिंदुत्व की सवलता, हिंदुओ की रक्षा, भारत की अखंडता और अजेय भारत की स्थापना हुआ करता था परंतु आज संघ संदेही और हिंदू विरोधी स्वरूप में देश की दुर्गति का आधार बनता जा रहा है । भारत की संयुक्त शक्ति ही देश का गौरव है, फिर इस गौरव से उन्हें जलन हो जिन पर सभी को गर्व हो तो चिंता - चिंतन ज़रूरी है ।
        भारत की वर्ण व्यवस्था कर्मगत थी आज भी है , क्षत्री जो युद्ध कला में निपूर्ण हो सामाजिक - धार्मिक  और राज्य रक्षा की जुम्मेदारी का निस्पक्षता से निर्वहन करने के लिए जो प्रतिज्ञा वद्ध हो वही क्षत्री है ( इस विशाल और अखंड भारत के अजेय होने का कारण यही था की जातिगत नहीं कर्मा अनुशार यहाँ राजा हुए उनके पौरुष से भारत की गरिमा कभी धूमिल नहीं हुई - क्षत्री शक्ति का व्यापारी था जो अपने राज्य विस्तार और प्रजा के हित में कार्य करता था , यह अपनी शक्ति से राज्य का संचालन करता था । )
        बैश्य जो बस्तु के व्यापारी थे सम्पूर्ण दुनिया से ज़रूरत की बस्तुओ का संकलन  कर बस्तु विनिमय - फिर पैसे के विनिमय द्वारा सभी को उनके ज़रूरत की बस्तुए उपलब्ध कराने का कार्य करते थे यह कार्य किसी जाति विशेष के आधिपत्य पर नहीं था, जो भी बस्तु का व्यापार करता था वही व्यापारी कहलाया अर्थात् बैश्य हुआ समाज के लिए वस्तु की उपलब्धता का दयुत्व इसी पर था ।
       शूद्र श्रम के व्यापारी को शूद्र कहा जाता था, श्रम के बदले धन य आवश्यक वस्तु प्राप्त करने का अधिकारी यह समाज कभी कला का पुजारी और व्यापारी भी था, लकड़ी के कार्य, चमड़े का व्यापार, मिट्टी के वर्तन का निर्माण और व्यापार, भवन निर्माण में निपूर्ण लोग शूद्र कहलाए ये लगन के पक्के और खोजी तथा निर्माण कार्य में कुशल होते थे । समाज के अधिकतर लोगों के लिए कार्य का निर्धारण उनकी आर्थिक सम्पन्नता का  मूल मंत्र था जैसे

गहना बनाने का कार्य -- सुनार
 हथियार और लोहे के अन्य उपकरण बनाने बनाने का कार्य -- लोहार
दोना पत्तल पत्तल बनाने का कार्य  -- बारी,,,,,, बांस से दौरी, टोकनी सूप बनाने का कार्य -- धरिकार,
नाव चलाने तथा मछली के व्यापार का कार्य -- मल्लाह,,,,,,बर्तन बनाने का कार्य -- ठठेरा, ताम्रकार
कपड़े सिलने का कार्य  -- दर्जी
दरबाज़ा, खिड़की और समस्त प्रकार के फर्नीचर बनाने का कार्य -- बढ़ई
बाल काटने तथा समाज में लड़के लड़कियों की शादी तैय करने का कार्य -- नाई
ईंट बनाने तथा समस्त प्रकार के मिट्टी के बर्तन निर्माण का कार्य -- प्रजापति-कुम्हार
मूर्ति, मंदिर और पत्थर से बनने बाले सभी उपकरण बनाने का कार्य -- शिल्पकार
घर, कुआँ, बाबली बनाने का कार्य-- राजमिस्त्री
तेल पेरने का कार्य -- तेली,,,,, मांस बेचने का कार्य -- खटिक
पान की खेती-पान बेचने का कार्य -- बरई - चौरसिया
फूलो की खेती करने और इत्र बनाने का कार्य  -- माली
गाय, भैंस पालने और उनके को दूध बेचने का कार्य --- ग्वाला
कलारी चलने - मदिरा बनाने और वेचने का कार्य --- कलार - जैसवाल
जूता बनाने का कार्य -- चर्मकार,,, मिठाई बनाने का कार्य -- हलवाई
चूड़ी तथा इस्त्रियो के सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के व्यापार का कार्य -- मनिहार
कपड़ों का निर्माण कार्य -- जुलाहा - बुनकर, करते थे
इसे सामाजिक आरक्षण कहे या
सर्व समाज के सम्पन्नता की व्यवस्था, की हर हांथ को काम की गारंटी थी ।


( तेली, कोल, लोधी, कुर्मी, बनिया, गोड़, डोम सहित सभी वर्णो के लोग राजा हुए, वेदव्वयास, बाल्मीकी, रैदास, कवीर जिसे ज्ञानी संत हुए जो ब्राह्नण नहीं थे परंतु उन्हें ब्राह्नण ही माना गया उनके ज्ञान की पूजा हुई )


          ब्राह्नण यह व्यापारी नहीं थे यह स्थिर बुद्धि बाले एकाग्रता के धनी वैज्ञानिक थे ये समाज के सभी वर्गों को जो जिस योग्य होता था उसे उस कार्य में दक्ष करते थे, समाज को एक सूत्र में बांधने और उसके विधि पूर्वक संचालन की जुम्मेदारी ब्राह्नण की थी वेदों की रचना और उसके वैज्ञानिक सूत्रों की शक्ति का संकलन तथा उससे सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान का दयुत्व ब्राह्नण पर था । ब्राह्नण दूसरों को जो ज्ञान देता था वह दान स्वरूप था अर्थात् ब्राह्नण व्यापारी नहीं था, ब्राह्नण को अपने कर्म और कर्तव्यों पर अहंकार ना हो इस लिए वह रोज़ अपने अहंकर का मर्दन करने पाँच घरों से भिक्षा माँग कर अपना उदार पोषण करता था ।
अर्थात् इस सनातनी समाज में सभी का सम्मान सभी के निर्धारित दयुत्व सभी के लिए व्यापार सभी को अपने कार्य पर दक्षता सभी को आर्थिक रूप से मज़बूती और समानता का अधिकार था, ब्राह्नण ने सभी को सब कुछ दिया और अपने हिस्से में दरिद्रता लिया और अद्भुत विज्ञान का ज्ञान दिया । ( समाज का हर व्यक्ति यथा समर्थ महल और घरों में रहता था जब की ( राजा का गुरु होते हुए भी ब्राह्नण कांस की झोपड़ी में रहता था और वसुधैव कुटुम्बकम की कामना को साकार करने का कार्य करता था ) 


आज चर्चा सामाजिक ढाँचे के यथार्थ की करना इस लिए ज़रूरी हुआ की समाज का कोई भी व्यक्ति जो अपने कर्मानुशार समाज व राष्ट्र के उत्थान में तत्पर है वह अगर किसी भ्रम के कारण अपने मूल से भटकता है तो सामाजिक व्यवस्था सहित राष्ट्रीय संतुलन पूरी तरह डगमंगा जाएगा, नेता अस्थिरता पैदा कर अपने निहित स्वार्थों के लिए जातीय भेद से सत्ता में बने रहने का षड्यंत्र कर रहे है तव समाज के हर तवके को सतर्क रहने की ज़रूरत है ।


छोटे छोटे राज्यों में फैला विशाल अखंड और सबल भारत के धर्म और सामाजिक सदभाब को सम्पूर्ण विश्व ने देखा है , सनातनी शक्ति का आधार सामाजिक ढाँचा सबल, सम्पन्न, शक्तिशाली, अखंड और अजेय भारत का मूल आधार था । मुग़लों ने भारत को ग़ुलाम बनाया जिस कारण हमारी संस्क्रति नष्ट - भ्रट और ध्वस्त हुई जातीय भेद की रही कसर ब्रिटिस  - अंग्रेजो ने पूरी की और भारत के मूल सामाजिक शक्ति स्वरूप ढाँचे को ध्वस्त कर दिया । जिसके दुष्परिणाम को आज भी देश भुगत रहा है ।
हमारे धार्मिक ग्रंथो में जातीय आधार के विष का अंकुरण किया भारत के विद्वान देश के स्वतंत्रता के संघर्ष में अपने प्राणो की आहुति दे रहे थे और अंग्रेज अखंड भारत की संस्क्रति को जातीय वर्ग संघर्ष के रंग में रंगकर देश को सदा सदा के लिए कमजोर करने के षड्यंत का वीज़ारोपण सफलता पूर्वक कर रहे थे । मुग़लों और अंग्रेजो की कुटिलता सफल इस लिए हुई की स्वतंत्रता के उपरांत विद्वत जनो और सरकार ने पुरातन परप्परा को सभालने की ज़रूरत ही नहीं समझी बरन अंग्रेज़ी जीवन शैली और उनके द्वारा बोए गए विष को ही आदर्श मानलिया गया परिणाम अखंड भारत खंड खंड होने लगा, संस्कार, मर्यादा, सब कुछ नष्ट हो गई ।

चार वर्णो के सबल, सम्पन्न समाज को 3000 जातियों जबकि 25000 उपजातियों में बाँट दिया गया हर जाती स्वयं को दूसरे से सबल और श्रेष्ठ साबित करने में इस लिए लगी है की राजनीति में उसे अपने समाज का बर्चस्व चाहिए सत्ता में योग्यता नहीं जातीय वाहुल्यता के आधार पर भागीदारी चाहिए इसी लिए राजनीति व्यापार और विरोध तथा संघर्ष का स्वरूप लेती जा रही रही भारत की पहचान आ जातीय आरक्षण है यहाँ का ज्ञान और विज्ञान तथा सामाजिक सम्पन्नता नहीं, अर्थात् हम सबल नहीं सामाजिक रूप से निर्वल हुए है यही हाल रहा तो ये निर्वलता कंगाली में बदल जाएगी ।


             आपका
देवेन्द्र पाण्डेय "डब्बू जी "

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